-: व्यक्तित्व : -
एम. एल. परिहार
सामंती राजस्थान के अतिसांमती जिले पाली की देसूरी तहसील में एक छोटा-सा गांव है करणवा। जातिवाद और सामंतवाद का भयानक मिश्रण जहां पर दलित अक्सर अपनी पूरी जिन्दगी हाली (बंधुआ मजदूर) के रूप में गुजारने को अभिशप्त थे, मंदिर में जाने पर दलितों की पिटाई होती थी, गांव के कुंए से पानी नहीं भरने देते थे, राजपूतों के मौहल्ले से साईकिल पर बैठ कर जाना मना था, अच्छे कपड़े पहनने की इजाजत नहीं थी, दलित औरतें आभूषण नहीं धारण कर सकती थी, गांव की हथाई पर दलितों को नहीं चढ़ने दिया जाता था, ज्यादातर दलित सवर्ण जातिवादी हिन्दुओं के पशु चराते या उनके खेतों में काम करके जीवन जीने को मजबूर थे, ऐसे भयानक माहौल में 14 अगस्त 1960 के दिन गांव की दलित मेघवाल जाति में एम.एल. परिहार का जन्म हुआ। पिताजी खेतीहर मजदूर तथा मिस्त्री का काम करते थे, मां गृहिणी। पिता कबीर के भजन गाया करते थे। गांव में दलित समुदाय के बच्चों के लिए पढ़ने का कोई माहौल नहीं था, फिर भी एम.एल. परिहार को गांव की स्कूल में पढ़ने भेजा गया, जहां से उन्होंने चौथी कक्षा उर्तीण की, पांचवी कक्षा के लिए 10 किलोमीटर दूर ढालोप और छठी कक्षा के लिए 12 किलोमीटर दूर नाड़ोल पढ़ने जाना पड़ा, यातायात के कोई साधन तो थे नहीं, पैदल ही, बिना जूते के, नंगे पांव 12 किलोमीटर जाना और 12 किलोमीटर आना यानि कि हर दिन 24 किलोमीटर का सफर तय करके पढ़ने की कोशिश में लगे थे 12 वर्षीय किशोर एम.एल. परिहार, पढ़ने की अद्भूत लगन, उत्कट इच्छा और अदम्य अभीत्सा लिये . . .।
उन दिनों को याद करते हुए पशुपालन विभाग, जयपुर के संयुक्त निदेशक डॅा. एम. एल. परिहार कहते है – ‘‘हालांकि परिस्तिथियां बहुत विपरित थी, मगर उन दिनों एक अलग ही माहौल था, दलितों में पढ़ने की बहुत रूचि थी।’’ शायद इसी अध्ययन की रूचि ने परिहार के प्रारम्भिक अध्ययन की बहुत ही मजबूत नींव डाली, वे 7वीं से 12वीं कक्षा तक पढ़ने के लिए पाली जिले के ही रणकपुर सादड़ी कस्बे के समाज कल्याण विभाग के छात्रावास में रहे, छात्रावास का जीवन उनकी जिन्दगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ, हॅास्टल के वार्डन थे हरिराम मेघवाल, उनके कमरे में बाबा साहब अम्बेडकर की तस्वीर लगी हुई देखी पहली बार, उनसे ही जाना कि – ‘‘इस महापुरूष ने हम दलितों व गरीबों के लिये बहुत काम किया, इनका नाम डॅा. भीमराव अम्बेडकर है।’’ बाद में अम्बेडकर के बारे में पढ़ा, लाइब्रेरी से। बाहर से आने वाले अफसरों से मिले तो अम्बेडकरी साहित्य से परिचय हुआ, छोटी-छोटी अम्बेडकर जयंती मनने लगी। करणवा गांव में व्याप्त छुआछुत और राजपूतों के आंतक, मेघवाल जाति के लालची पंच पटेलों के अमानवीय फैसलों और धार्मिक अंधविश्वासों से निजात पाने में उन्हें अम्बेडकर के विचार बहुत क्रांतिकारी लगे, उन्होंने अधिकाधिक अम्बेडकरी मिशन का साहित्य पढ़ना आरम्भ किया और उनकी विचारधारा मजबूत होने लगी।
डॅा. परिहार बताते है कि – ‘‘उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र निवासी अजा/जजा वर्ग के अधिकारी कर्मचारी अम्बेडकरवादी साहित्य और विचारधारा के प्रचार-प्रसार में उन दिनों अग्रणी थे, उनके सम्पर्क में आने से मुझे काफी जानकारियां मिली, जब बाबा साहब को पढ़ा, हिन्दुत्व के कर्मकाण्ड और पाखण्ड को देखा तथा सवर्ण हिन्दुओं के अमानवीय व्यवहार को सहन किया तो सहज ही बुद्धिज्म की मानवता, समानता और नैतिकता की ओर आकर्षित हो गया। डॅा. एम. एल. परिहार ने बाबा साहब के साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात धार्मिक, आर्थिक व सामाजिक शोषण से मुक्ति के लिए तथागत गौतम बुद्ध की राह पकड़ ली, आज वे एक सच्चे बौद्ध की भांति जीवन जीने का ईमानदारी से प्रयत्न करते है तथा लोगों को भी बुद्ध की देशना से अवगत कराते है।
खैर, रणकपुर सादड़ी के समाज कल्याण छात्रावास में अध्ययन के दौरान परिहार तथा उनके साथी दलित छात्र पढ़ने, खेलने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने तथा छात्रावास के खेतों में काम करने में सदैव अग्रणी रहे, स्वयं के कमाये पैसों से पढ़ने का खर्चा निकालते थे, दौर ही भीषण था, अभावों से भरी जिन्दगी, न पहनने को जूते, न पर्याप्त वस्त्र, कभी कभी तो खाना भी पूरा नसीब नहीं होता। मगर अध्ययन की अतृप्त भूख ने पढ़ने से कभी विमुख नहीं होने दिया, संसाधनों के अभाव की चुनौतियों को पार करते हुए वे पाली के बांगड़ कॅालेज गये तथा बाद में बीकानेर के वेटेनरी कॅालेज में दाखिल हो गए, पांच साल में वहीं से डॅाक्टर व सर्जन की डिग्री ली तथा बाद यहीं से स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद आई.सी.ए.आर की नेशनल फैलोशिप मिल गई तो पढ़ाई और रहने का खर्चा भी निकल आया, 29 वर्ष की उम्र तक पढ़ाई की, 7 वर्षों तक का बीकानेर प्रवास उनके लिए अविस्मरणीय रहा, इस दौरान पेम्पलेट छापकर सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक अंधविश्वासों के खिलाफ जमकर काम किया, जन समर्थन भी मिला और कभी-कभी समाज के रूढि़वादी तत्वों से भिड़ना भी पड़ा लेकिन धुन के पक्के परिहार लगे रहे, अनवरत, अनथक यात्री की भांति।
ये छोटे-छोटे समाज सुधार के पत्रक डॅा. परिहार की विचारधारा निर्माण की नींव के पत्थर बने, फिर उन्होंने अपने विचारों के वितान को विस्तृत करना आरम्भ कर दिया, सन् 1980 में उन्होंने राजस्थान पत्रिका और नवभारत टाइम्स के ‘लेटर टु एडीटर’ स्तम्भ हेतु पत्र लिखने शुरू किये, सम्पादकों ने जगह दी तो प्रोत्साहन मिला, हिम्मत बढ़ी और उन्होंने कलम को सामाजिक बदलाव का उपकरण बना लिया। विचारधारा तो बाबा साहब, कबीर और फुले बुद्ध को पढ़ने से मजबूत हो ही गई थी, इस दौरान सरिता मुक्ता प्रकाशन के रिप्रिन्ट भी उन्होंने पढ़े, इनमें लिखा भी, इसी दौरान बीकानेर में एस.सी. डावरे से भी मिलना हो गया, उनसे भी विचारधारा को आगे बढ़ाने में मदद मिली।
डॅा. परिहार मानते है कि ‘‘यू.पी. के जाटव समाज के लोगों ने उत्तर भारत में अम्बेडकरवादी विचारधारा को बहुत बढ़ाया, लोगों को गुलामी का अहसास कराया और उन्हें जागृत किया।’’ मैंनें जिज्ञासावश एक सवाल डॅा. परिहार से पूछ लिया कि – ‘‘आपके जमाने में तो शिक्षक बनने का जबरदस्त ट्रेण्ड था, आप पशु चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में कैसे चले गये ?’’ डॅा. परिहार मुस्कुराते हुए बोले – ‘‘हां, मैं भी शिक्षक ही बनना चाहता था, मगर उन दिनों सामाजिक कुरितियों को बनाए रखने में जिस प्रकार शिक्षक अपनी भूमिका निभाते थे, वे मौसर, गंगोज, मृत्युभोज, प्रसादी, जागरण जैसी कुरीतियों व पाखण्डो को बढ़ावा देते थे, इसलिये मुझे वितृष्णा हो गई। मैंने गंगोज, मौसर की बहुत खिलाफत की, मेरे पिताजी को इस कारण पंच पटेलों ने कई बार जाति से बहिष्कृत कर दिया, मगर मैं डटा रहा क्योंकि मैंने देखा जिस घर में मृत्युभोज होता, उसके बच्चे पढ़ाई छोड़कर या तो पाली की फैक्ट्रियों में चले जाते अथवा राजपूतों के खेतों में हाली (बंधुआ मजदूर) बन जाते थे। रही बात विज्ञान की तो मेरी प्रारम्भ से ही विज्ञान में रूचि थी, 9वीं कक्षा में मेरा एक जैन मित्र था हम दोनो ने बायलॅाजी ली, पढ़ाई में ठीक ठाक था, मैथ्स में कमजोर मगर विज्ञान में विशेष दक्षता अंक प्राप्त करता, पाली के बांगड़ कॅालेज से मैंने विज्ञान स्नातक की डिग्री ली। विज्ञान विषयक रूचि ने मुझे वैज्ञानिक सोच की तरफ आकर्षित किया और मैं पाखण्डों व अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ पाया।’’
लडाकू और संघर्षशील तो एम. एल. परिहार सदैव से ही रहे, सामाजिक सुधार के पत्रकों का प्रकाशन हो अथवा पाठक पीठ में धार्मिक अंधविश्वासों पर प्रहार, वे कभी पीछे नहीं रहे, धर्मान्धता, जातिवाद और सवर्ण हिन्दुओं के झूठे अभिमान को भी उन्होंने खूब ललकारा। नतीजतन कुछ दक्षिणपंथी संगठनों ने उन्हें धमकियां दी, ‘बोटी बोटी काट देंगे’ जैसे धमकी भरे पत्र भी मिले, धार्मिक ग्रंथों की विसंगतियों और देवी देवताओं के विरूद्ध बोलना सहज नहीं था। आर.एन.टी. मेडीकल कॅालेज उदयपुर के एक छात्र इन्दु लल ने जब धर्म परिवर्तन कर लिया तो डॅा. परिहार ने उसका समर्थन करते हुए लिखा – ‘‘इन्दुलाल, पीछे मत हटना, हम तुम्हारे साथ है।’’ यह लेख नवभारत टाइम्स ने छापा, खलबली मच गई। नाथद्वारा के मंदिर में दलितों के प्रदेश के आन्दोलन के वक्त प्रो. के.एल. खवास, रतन कुमार सांभरिया और डॅा. एम.एल. परिहार की तिकड़ी ने खूब लिखा। आज भी डॅा. एम.एल. परिहार अध्ययन व लेखन का काम नियमित रूप से पूरा करते है, वे सैकड़ों पत्र पत्रिकाओं पढ़ते है तथा उनका प्रचार प्रसार भी करते है, लगभग हर दूसरे दिन उनका एक आर्टीकल प्रकाशित होता है। पशु चिकित्सा पर उनकी लिखी तकरीबन 20 पुस्तकें पूरे देश में हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध है, उनके घर पर एक डॅाग क्लिनिक भी है, जहां वे कुत्तों की चिकित्सा करते है, अपनी ड्यूटी भी पूरी मुस्तैदी से निभाते है। हर हफ्ते दैनिक भास्कर में एज ए डॅाग स्पेशलिस्ट उनका एक कॅालम छपता है, सामाजिक बदलाव के हर प्रयास को उनका समर्थन मिलता है, अम्बेडकर, फुले, बुद्ध व कबीर की विचारसरणी की हर पत्र पत्रिका को वे आर्थिक व लेखकीय सहायता करते है और आम दलितों, गरीबों, मजदूरों व किसानों के आंदोलनों में भी शिरकत करते है। एक कुशल प्रशासक, दक्ष सर्जन, लोकप्रिय लेखक, सहृदय व्यक्ति और अम्बेडकर मिशन के सच्चे सिपाही के रूप में डॅा. एम.एल. परिहार सदैव सक्रिय नजर आते है। मैनें उनसे जानना चाहा कि आप इतनी सारी भूमिकाएं एक साथ कैसे निभा लेते है ? बेहद साधारण सा जवाब था उनका – ‘‘समय का प्रबंधन, बाबा साहब के पास भी हमारी तरह 24 ही घंटे थे, उन्होंने इतने ही समय में समाज को बहुत कुछ दे दिया, हम भी तो कुछ करें, समय का अपव्यय नहीं करें। ‘‘डॅा. परिहार पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, क्रिकेट तथा टी.वी. आदि से समय बचाकर लेखन, अध्ययन व समाजकर्म के लिये निकालते है, कितने लोग है जो अपनी सुख सुविधा में, मनोरंजन के समय में कटौती करके सामाजिक बदलाव के लिए काम कर पाते है, बहुत ही कम, सब अपने अपने ‘कंफर्ट जोन’ में है, सबने अपनी सुविधाओं के दड़बे बना रखे है, अधिकांश तो ऐसे है, जिन पर अकबर नजीराबादी का एक शेर बिलकुल फिट बैठता है -
क्या करे अहबाब, कार-ए- नुमायां कर गये
पैदा हुये, बी.ए. किया, नौकरी मिली पैंशन पाई और मर गये !
इस मलाईखाऊ, नौकरीपेशा, सुविधाभोगी शहरी वर्ग की डाॅ. परिहार ने समय-समय पर खबर ली है तथा उन्हें अपने पिछड़ गए समाज बंधुओं के प्रति सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास कराया है, इसीलिये पदौन्नति में आरक्षण के सवाल पर उन्होंने उच्च पदों पर बैठकर समाज से कट गए अफसरान को जमकर लताड़ा, यह उस वर्ग को चुभा भी, विरोध भी हुआ, डॅा. परिहार को वर्गद्रोही भी समझा गया, मगर वे अपने विचारों पर दृढ़ रहे, उन्होंने धैर्य रखा, आपा नहीं खोया, आज वे ही लोग, जिनके खिलाफ उन्होंने लिखा, मानने लगे है कि उन्हें आम दलित समाज के सुख दुख में भागीदार होना चाहिए। धीरे-धीरे ही सही मगर डॅा. एम.एल. परिहार दलित वर्ग के भीतर एक असहमति और आत्म आलोचना की आवाज के रूप में उभर कर सामने आये है और आज एक दलित आलोचक के रूप में उन्हें व्यापक सामाजिक मान्यता मिलने लगी है। डॅा. परिहार स्वयं स्वीकारते है कि सामाजिक कुरितियों, मूर्तिपूजा व धार्मिक पाखण्डों के खिलाफ लिखता हूं तो भले ही जो दलित इसमें आकंठ डूबे हुए है, वे भी अब कहने लगे है कि – ‘‘बात तो सही है हमें इससे उबरना चाहिए।’’ सही बात है, वातावरण बनेगा तो लोग इससे निकलेंगे, क्योंकि जिन पत्र पत्रिकाओं में डॅा. परिहार अपने तीखे, नुकीले आलोचनात्मक लेख लिखते है, उसका पाठक वर्ग उनके लेखों की मांग करता है। लेकिन उन्हें लगता है कि जिस भांति धार्मिक कट्टरवाद बढ़ रहा है, उससे चिन्तक, आलोचक व लेखक के लिये अभिव्यक्ति के रास्ते कम होते जा रहे है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरेदारी का बढ़ना निश्चय ही खतरनाक संकेत है।
अम्बेडकरवादी, बुद्ध और धार्मिक अंधविश्वासों के विरूद्ध वैज्ञानिकता व तर्कशील प्रकाशनों के प्रचार प्रसार में जुटे हुए डॅा. परिहार मानते है कि जब तक दलित समाज वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से जागृत नहीं होगा तब तक उसकी राजनीतिक जागृति का कोई मतलब नहीं है। जो लोग विचारधारा को फैलाने में बेहद मुश्किल परिस्थितियों में प्रकाशन करते है, उन्हें सहयोग देना डॅा. परिहार अपना फर्ज मानते है। फर्ज चाहे सामाजिक हो अथवा पारिवारिक सब दायित्वों को डॅा. परिहार ने बखूबी निभाया है, गांव में रहने वाले बुजुर्ग मां बाप की सेवा हो अथवा अपने भाईयों, भतीजों व भाणजों की पढ़ाई लिखाई, उन्होंने अपनी भूमिका और फर्ज की कभी अनदेखी नहीं की, वे जानते है कि सामाजिक बदलाव की शुरूआत खुद से और परिवार से ही होती है, तभी दूसरे लोग उसे स्वीकारते है, वरना तो करनी के बिना शब्द कोरे ही रहे जाते है। सम्प्रति डॅा. एम.एल. परिहार की पत्नि मंजु परिहार जयपुर में स्थित राजस्थान कॅालेज अॅाफ आर्ट्स में ड्रांइग एण्ड पेंटिंग की प्राध्यापिका है, बेटी आई.आई.टी. मुम्बई में अध्ययनरत है तथा वहीं बेटा नेशनल इन्स्टीट्यूट अॅाफ डिजाइनिंग, अहमदाबाद में पढ़ रहा है। एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत और मिशन व विचारधारा को समर्पित बौद्ध परिवार के मुखिया डॅा. एम.एल. परिहार फिलहाल पशुपालन निदेशालय जयपुर में संयुक्त निदेशक के तौर पर सरकारी सेवा में है। वे एक अच्छे वक्ता, रचनात्मक आलोचक, गहन अध्येयता, तर्कशील उपासक और मृदुभाषी सरलमना व्यक्ति है। बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी डॅा. एम.एल. परिहार दलित समाज के सुविधा व शक्ति सम्पन्न समृद्ध तबके को स्पष्ट चेतावनी देते है कि जो समाज बंधु पीछे रह गये है उन्हें जितना जल्दी हो सके साथ ले लो, वरना आम दलित एक दिन बगावत कर देगा।
निश्चित रूप से मैं डॅा. एम.एल. परिहार की इस चेतावनी से सहमति व्यक्त करता हूं कि जिन्होंने भी बाबा साहब अम्बेडकर के प्रयासों से मिले राजनीतिक व प्रशासनिक आरक्षण से सुविधाएं हासिल की है, वे उनका लाभ वंचित दलित तबके तक भी पहुंचावें ताकि एक समानतापूर्ण समाज बन सके, वैसे भी वंचित दलित समाज को सम्पन्न दलित समाज के समय, हुनर, बुद्धि और धन तथा सहयोग की सख्त जरूरत है। डॅा. परिहार केवल ऐसा सोचते ही नहीं है, वे ऐसा करते भी है, इसलिए उनका अधिकांश समय बाबा साहब के मिशन को आगे बढ़ाने में लगता है, वे सैकड़ों मिशनरी पत्र पत्रिकाओं को खरीदते है और उनका प्रचार करते है, ग्राहक बनाते है एवं उनके लिए लिखते है तथा कुछेक को तो सम्पादित भी करते है, वाकई, डॅा. परिहार की भांति हमारे समुदाय के हर सक्षम व्यक्ति हो जाए तो हम महज कुछ ही सालों में पूरे देश के दलित समाज को सक्षम बना पाने में सफल होंगे और इसके लिए डॅा. परिहार जैसे हजारों मिशनरियों व अम्बेडकर, फुले, बुद्ध व कबीर की विचारधारा के सच्चे सिपाहियों की हमें जरूरत है। डॅा. परिहार जैसे सच्चे मिशनरी कामरेड को जय भीम, जय जय भीम !