Monday, January 7, 2013

हाथों के बजाय खातों में देने की फ्लॅाप स्कीम


अरूणा रॅाय-भंवर मेघवंशी 
केंद्र सरकार द्वारा ‘गेम चेंजर’ और ‘जादू की छड़ी’ कहकर प्रचारित की जा रही नकद हस्तान्तरण योजना की राजस्थान में पहले ही दिन पोल खुल गई, ‘आपका पैसा-आपके हाथ’ जैसे लुभावने नारे बावजूद यह फ्लॅाप शो ही साबित होती दिख रही है। समाचारों के अनुसार राजस्थान के तीन जिलों में इसकी शुरूआत की गई है, अजमेर जिले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा संप्रग की मुखिया सोनिया गांधी ने आधार कार्ड योजना री-लांच की थी। योजना के पहले दिन के हालात इस प्रकार रहे, अजमेर में पहले दिन 22 हजार लाभार्थियों में से केवल 527 लोगों को लाभ, 2 लाख लोगों के आधार कार्ड बनने थे, बने सिर्फ 6 लाख के, उदयपुर जिले में 16 हजार 500 लाभार्थियों में से महज 800 लोगों के ही बैंकों में खाते खुल पाये है, ऐसा ही हाल बहुप्रचारित अलवर जिले का है 99 हजार 174 लोगों के आधार कार्ड बने है, जिनमें से 84 हजार के ही बैंक खाते खुल पाये है।
यह हालत तो तब है जबकि अलवर, अजमेर तथा उदयपुर जिलों का पूरा प्रशासन महीने भर से सिर्फ इसी कवायद में लगा हुआ है। बावजूद इसके भी जो उपलब्धि हासिल हुई है उसे खोदा पहाड़ और निकली चूहियां की उक्ति को चरितार्थ करने वाला ही कहा जा सकता है। हम मानते है कि किसी भी नई चीज के मूल्याकंन के मापदण्ड होते है कि उसके जरिये लोगों को नया क्या मिला ? क्या लक्षित फायदा और उद्देश्य पूरे हुये है तथा अगर उपरोक्त मापदण्ड पूरे नहीं हुये है तो क्या सरकार इन महत्वाकांक्षी योजनाओं की समीक्षा करेगी, क्या इन्हें रोक देगी और बहुत सारी जगहों की अपेक्षा एक दो जिलों में इसे पूरी तरह से लागू करके देखेगी। हालांकि सरकार ने पहले 53 जिलों में 36 स्कीमों में नकद हस्तांतरण की बात कही थी, लेकिन अब वह 20 जिलों में ही इसे कर रही है, इसमें भी कई योजनाएं तो ऐसी है जिनमें पहले से ही बैंक खातों में ही राशि दी जा रही थी, जैसे कि स्कॅालरशिप स्कीम्स् और जननी सुरक्षा योजना इत्यादि, जिनका पैसा पहले ही बैंकों के जरिये ही मिल रहा था, तब प्रश्न उठता है कि इस ‘गेम चेंजर कैश ट्रांसफर स्कीम’ ने आम लोगों को नया क्या फायदा दिया है ? शायद कुछ भी नहीं बल्कि फायदे के बजाय समस्याएं ज्यादा उठ खड़ी हुई है क्यांेकि नकद हस्तांतरण ब्राजील जैसे छोटे देश के लिये, जहां पर गरीबी रेखा के नीचे काफी कम प्रतिशत में लोग गुजर बसर करते है वहां पर सशर्त नकद हस्तांतरण के जरिये पूर्व में दिये जा रहे लाभों के अतिरिक्त लाभ दिये गये थे, मगर भारत में ऐसा नहीं है। सरकार केवल हाथों के बजाय खातों में पैसा भेजकर वाहवाही लूटना चाह रही है जो कि काफी हास्यास्पद और अव्यवहारिक कदम माना जा सकता है।
पहले दिन के परिणामों ने इस योजना के लागू होने में संदेह पैदा कर दिया है, साथ ही नकदी प्राप्त करने में आधार कार्ड की अनिवार्यता और बैंकों में खातों के खुलने में आ रही दिक्कतों के चलते लाभार्थी हतोत्साहित हो रहे है, संभवतः सरकार गरीबों को हत्सोत्साहित करके अनुदानों को खत्म करने की इच्छुक है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी सामूहिक महत्व की योजनाओं को ध्वस्त करना चाहती है।
अजमेर जिले की किशनगढ़ ब्लॅाक की ग्राम पंचायत तिलोनिया की सरपंच कमला देवी आधार कार्ड बनाने में आ रही परेशानियों से बेहद खफा है, वो स्वयं भी अपना कार्ड नहीं बनवा पाई क्योंकि उनके अंगुलियों के निशान तो आते है मगर अंगूठों के निशान नहीं आने से मशीन लेने से इंकार कर देती है। उनके मुताबिक उनकी पंचायत में कई बुजुर्ग तथा विधवा महिलाओं तथा मार्बल व्यवसाय में कार्यरत मजदूरों के फिंगरप्र्रिन्ट नहीं आने के कारण आधार कार्ड नहीं बन पा रहे है। आधार कार्ड नहीं तो बैंक में खाता नहीं खुलेगा और खाता नहीं तो कैश ट्रांसफर नहीं होगा, सरपंच कमला देवी पूछती है कि उन गरीब वृद्ध महिलाओं तथा गर्भवती महिलाओं का क्या होगा, जो आधार कार्ड से वंचित रह गई है ?
आर.के. पाटनी स्नातकोत्तर महाविद्यालय किशनगढ़ के विज्ञान वर्ग के द्वितीय वर्ष के छात्र अजय कुमार गुर्जर बताते है कि वे विशेष पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थी है तथा उनके 68 प्रतिशत अंक होने की वजह से वे देवनारायण छात्रवृत्ति योजना के पात्र है, उन्होंने आधार कार्ड हेतु भी आवेदन किया है तथा वहां से मिली पर्ची के आधार पर स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एण्ड जयपुर में खाता भी खुलवाया है, हालांकि खाता खुलवाना इस युवा के लिये बेहद तकलीफ देह अनुभव रहा, अव्वल तो बैंक ने फार्म ही देने से मना कर दिया कि यही बैंक थोड़े है, दूसरे में जाओं, फिर काफी अनुनय विनय के बाद फार्म मिल गया तो जमा करवाते वक्त लाइन बहुत लम्बी थी, बैंक में एक ही व्यक्ति चार-चार काम कर रहा था, अन्ततः खाता तो खुल गया मगर छात्रवृत्ति नहीं आई। तिलोनिया की सरपंच कमला देवी का भी कहना है कि बैंक वाले खाता खोलने में सहयोग नहीं करते है। वे बताती है कि आधार कार्ड बनाने आये युवाओं को कम्प्यूटर का पूरा ज्ञान ही नहीं है, वे ठेके पर लाये गये अप्रशिक्षित लोग है, अक्सर ग्रामीण क्षेत्र में कम्प्यूटर हेंग हो जाते है, एक दिन में बामुश्किल 30-40 लोगों के आधार कार्ड बन पाते है, शेष लोग कई-कई दिन चक्कर काटने के बाद अपना धैर्य खो बैठते है और स्थितियां मारपीट तक पहुंच जाती है। इस तरह इन योजनाओं का फायदा तो अभी तक कुछ नजर नहीं आ रहा है, परेशानियां जरूर सामने आ रही है।
समय आ गया है कि हम रूककर सोचें कि महानरेगा हो अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं में तो नकद हस्तान्तरण को लागू न ही करें बल्कि जिनमें इन्हें लागू किया गया है, उनमें भी इसे रोके। अगर आधार कार्ड बेहद जरूरी हो तो हम यह भी करे कि सारे आयकरदाताओं को आधार कार्ड से जोड़ें तथा अमीरी रेखा से उपर जीवन जी रहे लोगों की तमाम आय, सम्पत्ति और बैंक खातों को और भूमि, भवन, वाहन आदि के विवरण को भी आधार के साथ जोड़ दे, ताकि बेनामी सम्पत्तियों और कालेधन जैसी समस्याओं से निजात मिल सके। पर हम ऐसा करने के बजाय केवल गरीबों के पीछे पड़े है तथा उनको निरन्तर हाशिये पर धकेल रहे है।
हमें कैश ट्रांसफर जैसी योजनाओं तथा उनके क्रियान्वयन से भी इसलिये आपत्ति है क्योंकि वे शत प्रतिशत लाभार्थियों को कवर नहीं करती है तथा ये योजनाएं इसलिये भी सफल नहीं हो पाती है क्योंकि जिनका आधार कार्ड अथवा बैंक खाता नहीं होता है वे इससे वंचित रह जाते है, इस प्रकार आधार और कैश ट्रांसफर लाभार्थियों को जोड़ने के बजाय तोड़ने वाली योजनाएं साबित होती है। इससे भ्रष्टाचार रूकने का ढि़ंढ़ोरा भी पीटा जा रहा है लेकिन नरेगा के खातों में भुगतान की समस्याएं तथा बिजनेस कारस्पोडेंट की कार्य प्रणाली स्वयं में ही एक झंझट है फिर सारे व्यापार प्रतिनिधि निजी क्षेत्र से आये व्यक्ति होते है, इनकी कोई जवाबदेही नहीं होती है ऐसे में ये लोग बिचैलिये बनकर दलाली करने लगते है, ओडिशा के गंजाम जिले में तो एक बिजनेस कारस्पोडेंट नरेगा के करोड़ों रूपये लेकर ही भाग गया, वहीं आंध्रप्रदेश में सरपंचों ने अपने ही परिजनों को बिजनेस कारस्पोंडेंट बनाकर घपले और चोरियां करने के नये रास्ते खोल लिये है। अगर नरेगा में ऐसा हो रहा है तो क्या यह स्थिति अन्य योजनाओं में नकद हस्तांतरण में नहीं होगी ? इस पर भी विचार करना जरूरी है।
वैसे तो आधार कार्ड को हम नागरिकों की निजता के अधिकार में हस्तक्षेप मानते है तथा इसके लिये जुटाई जा रही जानकारियों के दुरूपयोग का भी भयंकर खतरा हमें महसूस होता है, यह भी पूछा जाना चाहिये कि सरकार क्यों हजारों करोड़ रूपये लगाकर नागरिकों की एक केंद्रीकृत पहचान के लिये कार्ड बनाने पर जुटी हुई है, सरकारें व्यक्ति या नागरिक को ‘इंसान’ के बजाय एक नम्बर अथवा एक ‘कार्ड’ बना देना चाहती है, कभी वह स्वास्थ्य कार्ड बनाती है, कभी वोटर कार्ड तो कभी आधार कार्ड, लेकिन आम लोगों की जिन्दगी बदलती ही नहीं है, वह जस की तस बनी रहती है। हमें कार्डों में नागरिकों की पहचान बनाने के बजाय उनकी बेहतरी के लिये व्यवहारिक योजनाओं को ईमानदारी से धरातल पर उतारना होगी।

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