पहले उन्होंने रामदेव पीर को दलितों से छीना ,बाद में उनकी विरासत पर काबिज़ हो कर मंदिर कब्ज़ा लिया और
अब उन्हें रामदेवरा मंदिर के पास में दलितों की एक धर्मशाला तक मंजूर नहीं है.यह हाल है
सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक रूनीजा के रामदेव पीर मंदिर का ,जहाँ पर इन दिनों
भव्य मेला सज रहा है .
राजस्थान के जैसलमेर जिले की पोकरण ब्लॉक के रामदेवरा ग्राम में स्थित
बाबा रामदेव पीर का मंदिर राजस्थान ,हरियाणा ,पंजाब ,गुजरात ,मध्यप्रदेश ,दिल्ली
तथा महाराष्ट्र के करोड़ों रामदेव भक्तों की आस्था का केंद्र है .राजस्थान ,गुजरात तथा
मालवा के कईं दलित समुदाय रामदेव पीर को अपना आराध्य देवता मानते है .एक अनुमान के
मुताबिक हर वर्ष लगभग 30 लाख लोग रामदेवरा पंहुचते है .करोड़ों रूपये का चढ़ावा आता
है ,जिसे रामदेव पीर के वंशज होने का दावा करने वाले लोग आपस में मिल बाँट कर हज़म
कर जाते है .
रामदेव पीर के बारे में यह कहानी प्रचारित की हुयी है कि वो विष्णु के
चौबीसवें अवतार थे और रूनीजा के राजा अजमल सिंह तंवर के घर पर अवतरित हुए थे.इस
तरह की कहानियों को भजनों के माध्यम से रामदेव पीर से लगभग तीन सौ बर्ष बाद पैदा
हुए हरजी भाटी नामक लोककवि ने गा गा कर प्रचारित किया था .आज़ादी के बाद के वर्षों
में एक स्थानीय बारेठ कवि ने ‘खम्मा खम्मा ‘ नामक गीत रचा ,जिसे तन्दूरे पर गाया
जाता है ,जिसमें भी रामदेव पीर के अजमल तंवर के घर आकर पालने में सोने की
चमत्कारिक कहानी बताई गयी है .इस तरह रामदेव पीर और उनके चौबीस चमत्कार जिन्हें पर्चे
कहा जाता है ,बड़े लोकप्रिय हो गए .लोगों ने चमत्कार की कहानियों पर उसी तरह यकीन
कर लिया ,जिस तरह रामदेव पीर का तंवर वंश में जन्म लेने की कहानी पर किया था ,जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत रही है ,जिसे कभी
भी बाहर नहीं आने दिया गया .
क्या यह संभव है कि कोई भी इन्सान या लोकदेवता या कथित अवतार बिना
स्त्री पुरुष संसर्ग से पैदा हो सके ? नहीं ना ? फिर रामदेव कैसे सीधे ही खुद ही
चल कर बिना जन्म लिए ही अजमल तंवर के बेटे वीरमदेव के साथ पालने में आ कर सो गए ?
यह पूरी कहानी ही बनावटी लगती है . तंवर वंश के लोग यह बता सकते है कि उनके भाटों
की पौथी में रामदेव जी का जन्म वर्णित क्यों नहीं है ? अगर नहीं तो फिर रामदेव पीर
अजमल जी के पुत्र कैसे हुए ? या अगर वे माता मैना देवी के पुत्र थे तब यह सवाल
उठेगा कि मैनादेवी ने एक के तुरंत बाद दूसरी संतान को कैसे जन्म दे दिया ?
आस्थावान लोग रामदेवजी को अलौकिक और अवतारी पुरुष मानेंगे ,उनकी आँखों पर भक्ति का
अँधा चश्मा चढ़ा हुआ है ,उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ है ,मगर समझदार लोग तो सोच सकते
है कि आखिर रामदेव पीर की पैदाइश का रहस्य क्या है ?
इस रहस्य से सबसे पहले पर्दा जोधपुर के उत्तम आश्रम के पीठाधीश्वर स्वामी
रामप्रकाशाचार्य जी महाराज ने उठाया ,उन्होंने ‘रामदेव गप्प पुराण तथा ढोल में पोल
‘ नामक किताब लिख कर कईं सवाल खड़े किये ,जिनके खिलाफ तंवर लोग अदालत में भी गए .मगर
वहां उनकी दाल नहीं गली .इसके पश्चात प्रसिद्ध दलित लेखिका डॉ. कुसुम मेघवाल की एक
पुस्तक आई –मेघवाल बाबा रामदेव . वर्ष 2006 में मेरा एक शोध ग्रन्थ –‘ रामदेव पीर :एक
पुनर्विचार ‘ भी प्रकाशित हुआ ,सबमे एक बात तो समान थी कि रामदेव पीर का जन्म बाड़मेर
जिले के उन्डू काश्मीर गाँव में सायर जयपाल के घर माता मगनदे की कौंख से हुआ था .सायर
जयपाल दलित समुदाय की मेघवाल जाति के व्यक्ति थे और अजमल सिंह तंवर नामक जागीरदार
के घोड़े चराते थे तथा उनके आध्यात्मिक शिष्य भी थे . ‘ अवतारवाद के शिकार लोक क्रान्तिकारी
महामानव बाबा रामसापीर ‘ नामक अपनी कृति में इतिहासकार रामचंद्र कडेला मेघवंशी ने बाबा
रामदेव के जन्म रहस्य को इस तरह उद्घाटित किया है –
‘सायर सुत ,मगनी रा जाया ,ज्यारी महिमा भारी
भेंट कियो सुत अजमलजी ने ,सायर ने बलिहारी .
मेघरिखां संग तंवर वंश रा , भाग जागिया भारी
दुनिया जाने रामदेवजी ने ,अजमल घर अवतारी.’
यह तथ्य अब देश भर की जानकारी में आ चुका है कि बाबा रामदेव एक दलित
मेघवाल सायर जयपाल के घर जन्में थे ,जिन्हें अजमल सिंह तंवर के शिष्यत्व में
आध्यात्मिक शिक्षा दीक्षा के लिए सौंपा गया था ,वे डाली बाई के सगे भाई थे ,उन्होंने
सूफी निजारी पंथ की दीक्षा ले ली थी और वे पीर कहलाये . उन्होंने छुआछूत की जमकर
मुखालफत की तथा ब्राह्मणवाद और मूर्तिपूजा जैसे पाखंडों के खिलाफ उन्होंने अलख
जगाई ,वे नाथ पंथी योगी थे तथा उन्होंने इस्माईली निजारी पंथ को स्वीकार लिया था ,जो
कि उस वक़्त सत धर्म कहा जाता था .उन्होंने अपनी आध्यात्मिक सत्संगों में महिलाओं
को भी प्रवेश करने की इज़ाज़त दी थी. औरतें उनके पंथ में बराबर के दर्जे पर मानी जाती
थी ,जिससे जातिवादी तत्व बेहद खफा रहते थे ,रामदेव पीर उस वक़्त के एक विद्रोही
दलित संत थे ,वर्णवादी लोग उनके बहुत विरुद्ध हो गए थे .वे बाबा रामदेव के महा
धर्म सतपंथ को कान्चलिया पंथ बता कर निंदा किया करते थे.वे उन्हें विधर्मी भी कहते
थे ,क्योंकि रामदेवजी के साथ बड़ी संख्या में मुस्लिम शिष्य भी थे ,इन सब चीज़ों से
खफा पुरोहित वर्ग ने षड्यंत्र करके मात्र 33 वें वर्ष की उम्र में ही रामदेवजी तथा
उनकी बहन डाली बाई को जीवित ही समाधी लेने को मजबूर कर दिया .बाद में उनके बारे
में तरह तरह के चमत्कार की कहानियां गढ़ कर उनके नाम पर कमाई शुरू कर दी गयी ,ताकि
अधिकाधिक लोग रामदेवरा आये और चढ़ावा चढ़ाये.इसके बाद रामदेव में लोगों की आस्था बढ़ती
गयी ,पहलेतो रामदेव पीर सिर्फ दलितों एवं
गरीब मुसलमानों के ही देवता थे ,पर धीरे धीरे अन्य लोग भी उनमे आस्था रखने लगे .अब
तो उनके यहाँ पैदल चल कर आने वालों में ज्यादातर गैरदलित ही दिखाई पड़ते है .
खैर, यह तो हुयी रामदेवजी के बारे में थोड़ी सी जानकारी ,विस्तृत जानकारी
तो उपरोक्त पुस्तकों में दर्ज है ,जिन्हें पढ़ने से विस्तार से जानकारी मिल सकती है
,पर अब बात करते है रामदेव पीर के मंदिर के पश्चिम में रामसरोवर की पाल पर स्थित ‘
श्री रामदेव मेघवाल समाज विकास संस्था रामदेवरा की धर्मशाला’ की ,जिसकी मौजूदगी रामदेवजी के कथित वर्तमान वंशजों को बर्दाश्त
नहीं हो रही है .वे कई वर्षों से इस कोशिस में लगे हुए है कि रामदेवजी के मंदिर के
इतने पास दलितों की एक धर्मशाला कैसे हो सकती है ? एकदम सटी हुई ,जिस पर लिखा हो- ‘श्रीरामदेव
मेघवाल’ ! बरसों से इस धर्मशाला का प्रबंधन जीवन राम बांदर संभालते है .जो निर्भीक
एवं सच्चे व्यक्तित्व के धनी दलित कार्यकर्ता है .देश भर से दलित समुदाय से सहयोग जुटा कर
उन्होंने इस धर्मशाला को विकसित किया है .मूलतः यह धर्मशाला रामदेवरा के ही
मूलनिवासी मगन नाथ उर्फ़ मगन लाल वल्द मोहन दास के स्वामित्व में थी ,जिसका एक बापी
पट्टा भी रामदेवरा ग्राम पंचायत के सरपंच एवं तत्कालीन गादीपति राव रिडमल सिंह की ओर
से उन्हें दिया गया था .बाद में मगन लाल मेघवाल सन्यासी हो गए तथा अहमदाबाद में जा
कर रहने लग गए ,उम्र अधिक हो जाने से 1993 में उन्होंने इस धर्मशाला के प्रबंधन का
कार्य जीवन राम के बड़े भाई कानाराम बांदर [मेघवाल ] को सौंप दिया ,वर्ष 2007 में
यह धर्मशाला मेघवाल समाज की पंजीकृत संस्था के जरिये संचालित की जाने लगी .बिलकुल
मंदिर से लगी हुयी इस धर्मशाला में देश भर से आने वाले लोग ठहरते है तथा यह
रामदेवरा में दलित जागृति की अनेकानेक गतिविधियों की केंद्रबिंदु भी है ,जिसके चलते
यह स्थान सदा से ही प्रशासन और तन्वरों के निशाने पर रहा है .
इसके बाद चालू हुआ साजिशों का दौर ,शिकायत डर शिकायतें ,धमकियाँ और
धर्मशाला तथा प्याऊ को नेस्तनाबूद कर देने के प्रयास ,जो कि अब तक भी जारी है .संभागीय
आयुक्त के दौरे के दौरान भी यह शिकायत की गयी ,उन्होंने बिना कोई पक्ष सुने कह
दिया कि यह अतिक्रमण है ,इसे हटा दिया जाये .जबकि नायब तहसीलदार पोकरण इस मामले कोपहले
ही सुन चुके है और निर्णय दे चुके है कि यह अतिक्रमण नहीं है ,कानूनन और दस्तावेजन
यह प्याऊ और धर्मशाला पूर्णत जायज है ,फिर भी दलित समुदाय की इस धर्मशाला को तोड़ने
तथा इसे बंद करने के लिए जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है .हालाँकि जीवन राम बांदर
एवं अन्य दलित कार्यकर्ता इसे बचाने के लिए संघर्षरत है ,मगर उन्हें हम सब लोगों
का सहयोग चाहिए .
आज यह चिंतनीय प्रश्न है कि रामदेव पीर जो कि दलित समुदाय में जन्में
थे ,उन पर तथा उनकी सम्पूर्ण विरासत पर गैरदलितों ने कब्ज़ा कर लिया है ,मंदिर का
पूरा चढ़ावा गैरदलित तंवरों को जाता है ,स्थानीय दलितों के हाथ कुछ भी नहीं लगता है
,जबकि इस सब पर पहला तथा असली हक़ दलितों का है .यह सब तो चलता ही रहा है मगर अब तो
हद ही हो गयी है उनकों दलितों की एक प्याऊ और धर्मशाला का मंदिर के पास मौजूद होना
तक अखर रहा है और वे इसे तोड़ने पर तुले है .देश भर से आने वाले दलित विशेषकर
मेघवाल अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई इन दलित विरोधियों को सौंप कर आते है ,क्या यह
जायज है ? इस बार रामदेवरा जाने वाले हर दलित को यह संकल्प लेना चाहिये कि उसके
द्वारा एक धेला भी रामदेव पीर के इन फर्जी वंशजों को नहीं दिया जाये .इतना ही नहीं
बल्कि रामदेवरा मंदिर का प्रबंधन जाति विशेष के लोगों के हाथ में नहीं रह कर राजस्थान
सरकार के देवस्थान विभाग के हाथों में जाये ,ताकि वह यात्रियों की सुविधा के लिए कोई व्यवस्थाएं कर
सके ,मित्रों क्या यह उचित है कि हमारे
पूर्वज रामसापीर और हमारी पसीने की कमाई पर हमारे विरोधी मजे मारे और हम चुपचाप
देखते रहें ,मुझसे तो यह नहीं होगा ,क्या आपसे होगा ? अगर नहीं तो इस मसले पर
राष्ट्रव्यापी बहस खड़ी कीजिये ,अभी तो धर्मशाला और प्याऊ को बचाना है फिर रामदेवजी
की सम्पूर्ण विरासत पर वापस अपना हक़ पाना है ,इसके लिए लम्बी लड़ाई के लिए तैयार
रहिये .
- भंवर मेघवंशी
{लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मानवाधिकार
कार्यकर्त्ता है }
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