कतरा कतरा आबरू
....जहां सभ्यता नंगी
खड़ी है।
‘‘दोपहर होते-होते
नीचे हथाई पर पंच और गांव के मर्द लोग इकट्ठा होने लगे। उनकी आक्रोशित आवाजें ऊपर
मेरे कमरे तक पहुंच रही थी, सबक सिखाने की
बातें हो रही थी। आज सुबह से ही हमारे परिवार को हत्यारा समझकर गांव से भाग जाने
की अफवाह जान-बूझकर फैला दी गई थी, जबकि हम
निकटवर्ती नाथेला उप स्वास्थ्य केन्द्र पर अपनी गर्भवती बेटी लीला को प्रसव पीड़ा
उठने पर नर्स के पास लेकर गए थे। जब अफवाहों की खबर हमें लगी तो बेटी को वहीं
छोड़कर घर लौटे। तब तक 50-60 लोग आ चुके थे।
धीरे-धीरे और लोग भी आ रहे थे। हम अपने घर में ही थे। नीचे आवाजें तेज होने लगी। ‘बुलाओ नीचे’ की एक साथ कई आवाजें। तब धड़धड़ाते हुए कई नौजवान मर्द
सीढि़यां चढ़कर मेरे घर में घुस आए। पहले मुझे चोटी से पकड़ा, फिर पांवों की ओर से पकड़कर घसीटते हुए नीचे ले
गए, जहां पर सैंकड़ों पंच,
ग्रामीण अन्य तमाशबीन खड़े थे। मैं सोच रही थी
ये मर्द भी अजीब होते हैं, कभी ‘कालीमाई’ कहकर पांव पड़ते है तो कभी ‘कलमुंही’ कहकर पैर पकड़ कर
घसीटते है। मर्द कभी औरत को महज इंसान के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। उसे या तो
पूजनीय देवी बना देते है या दासी, या तो अतिमानवीय
मान कर सिर पर बिठाल देते है या अमानवीय बनाकर पांव की जूती समझते है।
वे मुझे घसीटकर
नीचे हथाई पर ले आए। उन्होंने मेरे दोनों हाथों में तीन-तीन ईंटें रखी और सिर पर
भारी वजन का पत्थर रख दिया। मेरा सिर बोझ सहने की स्थिति में नहीं था। पत्थर नीचे
गिर पड़ा, हाथों में भी दर्द हो रहा
था, उन्होंने मेरी कोहनियों
में लकड़ी के वार किए, वे मुझसे पूछ रहे
थे- सच बता। मैं क्या सच बताती? जाने कौन सा सच
वे जानना चाहते थे। मैंने कहा-‘‘म्है नहीं जाणूं
(मैं नहीं जानती), म्हूं कठऊं कहूं
(मैं कहां से कहूं)।’’
एक अकेली औरत और
वह भी हत्या जैसे संगीन आरोप के शक में पंचों की आसान शिकार बनी हुई, अगर निर्भीकता से बोले तो पुरुषों का संसार
चुनौती महसूस करने लगता है। लोगो को उसका निडर होकर बोलना पसंद नहीं आया। आखिर तो
वह अभी तक औरत ही थी ना। क्या वह अरावली की इन पहाडि़यों के बीच बसे इलाके के
प्राचीन कायदों को नहीं जानती थी? क्या वह भूल गई
थी, पिछले ही साल तो राजस्थान
के राजसमंद जिले के इसी चारभुजा थाना क्षेत्र में बुरे चाल-चलन के सवाल पर एक बाप
ने अपनी ही बेटी का सर तलवार से कलम कर डाला था और फिर लहू झरते उस सिर को बालों से
पकड़े, बाप उसे थाने में लेकर
पहुंच गया था।
इज्जत के नाम पर,
ऐसा तालिबानी कृत्य करते हुए यहां के मर्द तनिक
भी नहीं झिझकते है तो भी इसकी यह बिसात, अरे यह तो सिर्फ औरत जात है यहां तो किसी मर्द पर भी हत्या का शक मात्र हो जाए
तो उसे गधे पर बिठाकर घुमाते है पंच। फिर यह औरत है ही क्या?
बस फिर देर किस
बात की थी। इस छिनाल को नंगा करो...। एक साथ संैकड़ों आवाजें! एक महिला को
निर्वस्त्र देखने को लपलपाती आंखों वाले कथित सभ्य मर्द चिल्ला पड़े। ‘उसे नंगा करो।’ उसके कपड़े जबरन उतार लिए गए। वह जो आज तक रिवाजों से,
कायदों से, संस्कृति और कथित संस्कारों के वशीभूत हुई मंुह से घूंघट तक
नहीं उघाड़ती थी। आज उसकी इज्जत तार-तार हो रही थी, इस बीच 2 नवम्बर 2014 को आत्महत्या करने वाले वरदी सिंह की बेवा
सुंदर बाई चप्पलों से उसे मारने लगी। एक महिला पर दूसरी महिला का प्रहार, मर्द आनंद ले रहे थे।
जमाने भर की नफरत
की शिकार अपनी पत्नी की हालत उसके पति उदयसिंह से देखी नहीं गई। वह अपने बेटों
पृथ्वी और भैरों के साथ बचाव के लिए आगे आया। उसके द्ुस्साहस को जाति पंचायत ने
बर्दाश्त नहीं किया। सब उस पर टूट पड़े। मार-मार कर अधमरा कर डाला तीनों बाप-बेटों
को और उनको उनके ही घर में बंद कर दिया गया। ‘‘अब तुझे कौन बचाएगा छिनाल। बोल, अब भी वक्त है, सच बोल जा, तेरी जान बख्श
देंगे। स्वीकार कर ले कि तेने ही मारा है वरदी सिंह को, तू उसकी बेवा सुंदर को नाते देना चाहती है, तेरा कोई स्वार्थ जरूर है, तूने ही मारा है उसे।’’
पीडि़ता ने मन
नही मन सोचा, यह कैसा गांव है,
अभी जिस दिन वरदी सिंह ने आत्महत्या की तो
पुलिस को इत्तला देने की बात आई थीं तब सारा गांव एकजुट हो गया कि पुलिस को बताने
की कोई जरूरत नहीं है। फिर बिना एफआईआर करवाए, बिना पोस्टमार्टम करवाए ही चुपचाप मृतक वरदी सिंह की लाश को
इन्हीं लोगों ने जला दिया था तथा उसकी आत्महत्या को सामान्य मौत बना डाला था... और
आज उसकी हत्या का आरोप उस पर लगाकर उसकी जान के दुश्मन बन गए है।
‘‘अच्छा... ये ऐसे
नहीं बोलेगी। इसके मंुह पर कालिख पोतो, बाल काटो इस रण्... के! और गधे पर बिठाओ कलमुंही को।’’ जाति पंचायत का फरमान जारी हुआ। फिर यह सब अकल्पनीय घटा-
शर्म के मारे नग्न अवस्था में गठरी सी बनी हुई पीडि़ता का काला मंुह किया गया,
बाल काटे गए, जूतों की माला पहनाई गई और गधे पर बिठा कर उसे पूरे गांव
में घुमाया गया। इतना ही नहीं उसे 2 किलोमीटर दूर
स्थित थुरावड़ के मुख्य चैराहे तक ले गए। यह कथा पौराणिक नहीं है और ना ही सदियों
पुरानी। यह घटना 9 नवम्बर 2014 को घटी।
पीडि़ता रो रही
थी, मदद के लिए चिल्ला रही थी,
उसके आंसू चेहरे पर पुती कालिख में छिप गए थे
और रुदन मर्दों के ठहाकों में। औरतें भी देख रही थी, वे भी मदद के लिए आगे नहीं आई। थुरावड़ चैराहे पर तो एक औरत
ने उसके सिर पर किसी ठोस वस्तु का वार भी किया था। पढ़े-लिखे, अनपढ़, नौजवान, प्रौढ़, बुजुर्ग तमाम मर्द इंसान नहीं हैवान बन गए थे।
लगभग पांच घंटे तक हैवानियत और दरिंदगी का एक खौफनाक खेल खेला गया मगर किसी की
इंसानियत नहीं जागी। जो लोग इस शर्मनाक तमाशे में शरीक थे, उनके मोबाइल तो पंचों ने पहले ही रखवा लिए थे ताकि कोई फोटो
या विडियो क्लिपिंग नहीं बनाई जा सके, मगर राहगीरों व थुरावड़ के लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया।
थुरावड़ पंचायत
मुख्यालय है। वहां पर पटवारी, सचिव, प्रधानाध्यापक, आशा सहयोगिनी, रोजगार सहायक, सरपंच, वार्ड पंच, नर्स, कृषि पर्यवेक्षक
इत्यादि सरकारी कर्मचारियों का अमला बिराजता है। इनमें से भी किसी ने भी घटना के
बारे में अपने उच्चाधिकारियों को सूचित नहीं किया और ना ही विरोध किया। वह अभागिन
उत्पीडि़त होती रही। अपनी गरिमा, लाज, इज्जत के लिए रोती रही। चीखती-चिल्लाती,
रोती-कळपती जब उसकी आंखें पथरा गई और निरंतर
मार सहना उसके वश की बात नहीं रही तो वह गधे पर ही बेहोश होकर धरती पर गिरने लगी।
मगर दरिंदे अभी उसको कहां छोड़ने वाले थे। वे उसे जीप में डालकर वापस उसके गांव
थाली का तालाब की ओर ले चले, रास्ते में जब
होश आया तो फिर वही सवाल-‘सांच बोल,
कुणी मारियो’ (सच बोल, किसने मारा)।
उसने कहा ‘‘मेरा कोई दोष नहीं,
मुझे कुछ भी मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैं क्या बोलूं।’’ तब उसकी फिर पिटाई की गई, तभी अचानक रिछेड़
चैकी और चारभुजा थाना पुलिस की गाडि़यां वहां पहुंच गई। बकौल पीडि़ता-‘‘पुलिस उसके लिए भगवान बनकर आई, उन दरिंदों से पुलिस ने ही छुड़वाया वरना वे
मुझे मार कर ही छोड़ते।’’
बाद में पुलिस
पीडि़ता, उसके पति व बच्चों सहित
पूरे परिवार को चारभुजा थाने में ले गई, ढाढ़स बंधाया और मामला दर्ज किया, उसे अस्पताल ले गए, डाॅक्टरों को
दिखाया, इलाज करवाया और रात में
वहीं रखा।
अब पुलिस के
सामने चुनौती थी, आरोपियों की
गिरफ्तारी की। सुबह पुलिस ने गांव में शिकंजा कसा, जो पंच मिले उन्हें पकड़ा और थाने में ले गई। थाने तक
पहुंचने तक भी इन पंचों को अपने किए पर कोई शर्मिन्दगी नहीं थी। वे कह रहे थे-‘‘इसमें क्या हो गया? वो औरत गलत है, उसने गलती की, जिसकी सजा दी गई।’’
वे कानून-वानून पर भरोसा नहीं करते, अपने हाथों से तुरंत न्याय और फटाफट सजा देने
में यकीन करते है। उनका मानना है कि- ‘‘हमने कुछ भी गलत नहीं किया, हम निर्दोष है।’’
यहां इसी प्रकार के पाषाणयुगीन न्याय किए जाते
है, जो कि अक्सर औरतों तथा
गरीबों व कमजारों के विरुद्ध होते है। यहां खाप पंचायत के पंचों का शासन है,
वे कुछ भी कर सकते है, इसलिए यह शर्मनाक कृत्य उन्होंने बेधड़क किया।
पंचों को घटना की
गंभीरता का अहसास ही तब हुआ, जब उन्हें शाम को
घर के बजाय जेल जाना पड़ा और पिछले कई दिनों से करीब 30 लोग जेल में पड़े है, अब उन्हें अहसास हो रहा है कि - शायद उनसे कहीं कोई
छोटी-मोटी गलती हो गई है।
घटना के दूसरे
दिन जिला कलक्टर राजसमंद कैलाश चंद्र वर्मा तथा पुलिस अधीक्षक श्वेता धनखड़ मौके
पर पहुंचे, महिला आयोग की अध्यक्ष
लाडकुमारी जैन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के प्रवक्ता फरहान हक एवं
मजदूर किसान शक्ति संगठन व स्कूल फाॅर डेमोक्रेसी और महिला मंच के दलों ने भी
पीडि़ता से मुलाकात की है। मगर आश्चर्य की बात यह है कि इसी समुदाय के एक पूर्व
जनप्रतिनिधि गणेश सिंह परमार यहां नहीं पहुंचे, ना कोई वार्ड पंच आया और ना ही सरपंच, स्थानीय विधायक एवं पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह
राठौड़ भी नहीं आए, इसी जिले की
कद्दावर नेता और सूबे की काबीना मंत्री किरण माहेश्वरी भी घटना के पांच दिन बाद आई
और मुख्यमंत्री की ओर से राहत राशि देकर वापस चली गई। गृहमंत्री हो अथवा
मुख्यमंत्री किसी के पास इस पीडि़ता के आंसू पौंछने का वक्त नहीं है। कुछ
मानवाधिकार संगठन, मीडिया और पुलिस
के अलावा सबने इस शर्मनाक घटना से दूरी बना ली है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर तो
आरोपियों को बचाने के प्रयास के आरोप भी लग रहे है, वहीं राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित इस कांड के
विरूद्ध मुख्य विपक्षी दल ने तो बोलने की जहमत तक नहीं उठाई है।
जब मामला मीडिया
के मार्फत थाली का तालाब गांव से निकलकर देश, प्रदेश और विदेश तक पहुंचा और चारों ओर थू-थू होने लगी,
तब राज्य की नौकरशाही चेती और पटवारी, स्थानीय थानेदार, नर्स, प्रधानाध्यापक,
वार्ड पंच, उप सरपंच और सरपंच आदि को निलंबित किया। राशन डीलर तो इस
जघन्य कांड में खुद ही शामिल हो गया था। उसका प्राधिकार पत्र खत्म करने की
कार्यवाही भी अमल में लाई गई है, मगर प्रश्न यह है
कि सांप के निकल जाने पर ही लकीर क्यों पीटता है प्रशासन? क्या उसे नहीं मालूम कुंभलगढ़ का यह क्षेत्र महिला उत्पीड़न
की नरकगाह है, यहां ‘डायन’ बताकर कई औरतें मारी गई है। हत्या, जादू-टोने के शक में महिलाओं पर अत्याचार आम बात है, आज भी इस इलाके में जाति के नाम पर खौफनाक खाप पंचायतों के
तालिबानी फरमान लागू होते है, सरकारी धन से बने
सार्वजनिक चबूतरों पर बैठकर खाप पंच औरतों तथा गांव के कमजोर वर्गों के विरुद्ध
खुले आम फैसले करते है, सही ही कहा था
संविधान निर्माता अंबेडकर ने कि गांव अन्याय, अत्याचार तथा भेदभाव के मलकुण्ड है।
सबसे ज्वलंत सवाल
अभी भी पीडि़ता व उसके परिवार की सुरक्षा का है, उसके पुनर्वास तथा इलाज का है। न्याय देने और उसे
क्षतिपूर्ति देने का है। सरकार से किसी प्रकार की मदद के सवाल पर पीडि़ता ने कहा-‘‘
पुलिस ने मुझे बचाकर मदद की है, बाकी मेरे हाथों की पांचों अंगुलियां सलामत है
तो मैं मेहनत मजदूरी करके जी लूंगी।’’
मुझे पीडि़तों की
इस बात को सुनकर पंजाब के संघर्षशील दलित कवि और गायक कामरेड बंत सिंह की याद हो
आई, जिनको अपनी बेटी के साथ
दबंगों द्वारा किए गए बलात्कार का विरोध करने की सजा उनके हाथ-पांव काट कर दी गई।
जब बंत सिंह होश में आए तब उन्होंने कहा-‘‘जालिमों ने भले ही मेरे दोनों हाथ व दोनों पांव काट डाले है मगर मेरी जबान अभी
भी सलामत है और मैं अत्याचार के खिलाफ बोलूंगा।’’ सही है, इस पीडि़ता ने भी
अपनी अंगुलियों की सलामती और बाजुओं की ताकत पर भरोसा किया है तथा उसे लगता है कि
उसकी अंगुलियां सलामत है तो वह संघर्ष करते हुए मेहनत-मजूरी से जीवन जी लेगी।
पीडि़ता की तो अंगुलियां सलामत है मगर हमारे इस पितृसत्तात्मक घटिया समाज का क्या
सलामत है, जो उसे जिंदा रखेगा?
पीडि़ता के पास तो अपना सच है और पीड़ा की
यादें है, ये यादें उसके जीने के
संघर्ष का मकसद बनेगी, मगर हम निरे
मृतप्रायः लोगों के पास अब क्या है जो सलामत है? अगर अब भी हम सड़कों पर नहीं उतरते है, अन्याय और अत्याचार की खिलाफत नहीं करते है तो
हमारा कुछ भी सलामत नहीं है। हम पर लाख-लाख लानतें और करोड़ों-करोड़ धिक्कार!
- भंवर मेघवंशी
(लेखक राजस्थान
में कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्षरत है।)
भँवर जी, सबसे पहले तो आपका शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि आपने 'घटना' को बेहतर तरीके से पेश किया। इससे हमें विस्तृत रूप से जानने को मिला कि समाज, प्रशासन और हम आम जन कहाँ चूक रहे हैं, हर बार, बार-बार यंत्रणा एक औरत को ही क्यूँ भुगतनी पड़ती है !! क्यों समाज के खोखले रीति-रिवाज़ों की कमियाँ ढकने के लिए एक औरत को निशाना बनाया जाता है...? और क्यों आम लोग, जिनके साथ भी समाज का बर्ताव कभी भी बदल सकता है, चुप्पी साध लेते हैं??
ReplyDeleteमेरी समझ से किसी भी समाज, जहां एक औरत सुरक्षित महसूस नहीं करती, जहां उसे अपनी अस्मिता, अपनी गरिमा बनाए रखना मुश्किल जान पड़ता है उस समाज को बदलने की बहुत जरूरत है, नहीं तो एक दिन ऐसा आएगा कि वह समाज केवल तथाकथित मर्दों का ही रह जाएगा... यह बात आप और हम सब जानते आए हैं, सरकारी कर्मचारी और राजनीतिक नेता लोग कभी भी समाज की रूढ़ियों और दक़ियानूसी कामों के विरोध में सामने नहीं आए हैं, अपवाद हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि - ऐसा होता ही क्यों है जबकि महिला सुरक्षा, और सुरक्षित समाज बनाने, गैर-बराबरी दूर करने के नाम पर "अच्छे दिनों वाली सरकारें" तक बन जाती हैं ! और तो और, महान लोग (?) विदेश में सबसे सुरक्षित और मजबूत देश होने का ढ़ोल भी पीटके आए हैं।
मेरा सवाल है- कब तक ??? आखिर कब यह वहशियाना प्रवृति समाज में ख़त्म होगी???