- अरूणा रॅाय/ भॅवर मेघवंशी
यूआईडी अथॅारिटी का यह दावा निराधार साबित हुआ है कि आधार कार्ड ऐच्छिक है अनिवार्य नहीं, दिल्ली सरकार ने इसे अनिवार्य कर दिया है, राजस्थान में आधार के बिना कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलेगा। यूआईडी ने गरीबों पर अपना ताना-शाही रवैया दिखाना शुरू कर दिया है तथा यह स्पष्ट हो चुका है कि गरीब को अपनी हरेक सुविधा पाने के लिये आधार कार्ड लगाना जरूरी है।
प्रश्न यह है कि क्या हम चाहते है कि हमारी सारी सूचनाएं सत्तातंत्र और किन्हीं कम्पनियों के पास रहे? यहांहमें यह समझना जरूरी है कि नागरिकों की सूचनाएं सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा इस प्रकार लिये जाना सूचना के अधिकार के बिल्कुल विपरीत कदम है क्योंकि आरटीआई में सत्ता की सूचनाएं जनता के पास होती है, इस प्रकार सत्ता का तंत्र कमजोर होता है और लोक मजबूत, यह ठीक इसके खिलाफ कदम है क्योंकि यहां पर सत्ता के पास जनता की सारी सूचनाएं एकत्र की जा रही है, बाद में इन सूचनाओं की सुरक्षा के नाम पर पूरे सूचनातंत्र पर एक बार पुनः गोपनीयता का आवरण चढ़ाया जायेगा तथा अन्ततः सूचना के अधिकार को भी इससे सीमित करने की कोशिश की जायेगी।
वैसे भी कैश ट्रंासफर वाले रास्ते में और भी खतरे है, सरकार जनकल्याण की कई अन्य जिम्मेदारियों में भी अपनी असफलताओं का तर्क देकर अपने दायित्वों से भाग खड़ी होगी। कल वह यहीं तर्क शिक्षा के लिये और स्वास्थ्य के लिये भी देगी, कहेगी कि हम विद्यालय चलाने में सक्षम नहीं है, पैसे ले लो और अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाओं, क्या निजी स्कूलों की फीस में एकरूपता है? क्या सभी निजी स्कूल सरकार द्वारा कथित रूप से देय नकदी, जितनी ही फीस में आपके बच्चों को पढ़ायेंगे ? ऐसा ही स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी होगा, सरकार कहेगी, हम स्वास्थ्य सेवाएं देने में सक्षम नहीं है, ये पैसे ले लो और प्राइवेट हॅास्पीटल में इलाज करवा लो, क्या निजी अस्पताल सरकार द्वारा दी गई नकदी में जनता का ईलाज कर देंगे? बिल्कुल भी नहीं? जब हम जानते है कि निजी विद्यालय और निजी अस्पताल सरकार द्वारा दी गई नकदी के बदले जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य नहीं दे पायेंगे तब क्या बाजार जनता को अनाज, केरोसीन अथवा अन्य सुविधाऐं उन्ही पैसों में देगा? कतई नहीं यह जनता को बाजार के हवाले करने का एक तरीका है, यह सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारियों से भागने का एक रास्ता है। सच्चाई यह है कि यह बाजारीकरण और निजीकरण की एक ऐसी साजिश है जिसमें नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, अनाज जैसी तमाम बुनियादी जरूरत की चीजें भी सरकार नहीं दे सकती है तो फिर जनता को सरकार की जरूरत ही क्या है ?
यूआईडी आधारित कैश ट्रांसफर जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना को लागू करने से पहले तथा इसे लागू किये जाने के बाद भी यह पूछा जाना जरूरी होगा कि इस प्रकार की योजनाएं लाने का मकसद क्या है? वास्तव में जनता इससे लाभान्वित होगी? साथ ही समय-समय पर इसकी समीक्षा व मूल्यांकन करके बताया जाना चाहिये कि लक्षित फायदा जनता तक पहुंचा अथवा नहीं?
जब भी कैष ट्रांसफर के लक्षित लाभार्थियों के बारे में हमनें यूआईडी कैश ट्रांसफर के पक्षधरों से सवाल पूछा, उनकी ओर से कोई भी जवाब नहीं मिलता है। सोचने की बात यह है कि कई योजनाओं में तो आज भी उस लक्षित लाभार्थी को पहले भी पैसा ही मिल रहा था। आज भी पैसा ही मिल रहा हैं, पहले भी बैंक खाते में जमा हो रहा था, आज भी बैंक खाते में ही जमा हो रहा हैं। नया सिर्फ इतना सा है कि पहले लोग लाभार्थी की पहचान करते थे, अब वह अपनी 10 अंगुलियों और आँख की पुतलियों द्वारा मशीन से पहचाना जायेगा तथा इन्हीं पहचानों के आधार पर उसे उसका पैसा मिलेगा।
दरअसल सरकार को अपना नारा बदल लेना चाहिये - “आपका पैसा-आपके हाथ” नहीं बल्कि “आपका हक-मशीन के पास” कहा जाना चाहिये , क्योंकि मशीन को ठीक लगेगा तो वह आपका पैसा आपके हाथ देने की इजाजत देगी अन्यथा नहीं। अब इसके व्यवहारिक पहलुओं पर भी नजर डालनी चाहिये। राजस्थान के अजमेर जिले की तिलोनियां ग्राम पंचायत की सरपंच कमला देवी का ही उदाहरण लीजिये, उसका आधार कार्ड नहीं बन पा रहा है क्योंकि उसके अगुलियों के कोई निशान ही नहीं आते है, ऐसा ही उनकी पंचायत की दर्जनों वृद्ध व विद्यवा महिलाओं के साथ है जिन्हें अब तक तो पैंशन मिलती रही है मगर फिंगर प्रिन्टस के अभाव में आधार कार्ड नहीं बनने पर अब उनकी पैंशन अटक जायेगी, मशीन के खराब होने, कनेक्टिविटी नहीं होने तथा हैंग हो जाने की तो अभी हम बात ही नहीं कर रहे हैं मगर उन लाखों बच्चों, बूढ़ों और मेहनत मजदूरी करने वाले लोगों का क्या होगा जिन्हें आधार कार्ड बनाने वाली मशीन पहचान ही नहीं पा रही हैं, उनके हाथ की अंगुली व अंगूठे कोई निशान नहीं देते अथवा उन निरन्तर बुढ़ाती आंखों का क्या होगा जो मोतियाबिंद की शिकार होकर इन मशीनों की समझ से परे हैं, क्या ये मेहनती हाथ और वृद्ध होती आंखें कभी अपना हक ले पायेंगे? यूआईडी अथॅारिटी का जवाब है कि जिनके फिंगरप्रिंट और आंखों के रेटिना नहीं मिलेंगे उनको भी बिना मशीन की इजाजत के पैसा मिलेगा, इससे स्पष्ट हो जाता है कि यूआईडी को निगरानी के लिये काम में नहीं लिया जा सकता है। फर्जी आधार कार्ड के आधार पर भी फर्जीवाड़े की संभावना बनी रहेगी यह एक ऐसी तकनीक है, जिसकी शत प्रतिशत सफलता नहीं हो तो चोर दरवाजे सदैव खुले रहते है तथा भ्रष्टाचार पर रोक का उसका दावा भी खोखला साबित होता है। हमें लगता है कि जैसे यह सूचना के अधिकार के खिलाफ है वैसे ही यह जन निगरानी के भी विपरीत है, जनता को सूचना देकर उनको शक्तिशाली बनाने के बजाय हम पूरा काम मशीनों पर छोड़ रहे है, हम आज तक पूरे देश में मतदाता पहचान पत्र लागू नहीं कर पाये तो यह अंगूठा छाप तकनीक (आधार कार्ड) कब लागू हो पायेगी इस पूरी परियोजना के लागू होने में भारी सन्देह है, आधार कार्ड पर आधारित नकद हस्तांतरण को लागू किये जाने के पहले दिन को देखें तो भी इसकी पोल खुल जाती है राजस्थान के अलवर, उदयपुर तथा अजमेर जिलों में इसे लागू किया गया है। योजना के पहले दिन (1 जनवरी 2013) हालात इस प्रकार रहे -
अजमेर में पहले दिन 22 हजार लाभार्थियों मे से केवल 527 को लाभ मिला, 25 लाख लोगों के आधार कार्ड बनने थे बने सिर्फ 6 लाख के, उदयपुर जिले में 16,500 लाभार्थियों में से महज 800 लागों के ही बैकों में खाते खुल पाये है।
ऐसा ही बहु प्रचारित अलवर जिले में हुआ जहां पर पहले दिन तक मात्र 99,174 आधार कार्ड ही बन पाये जिनमें भी केवल 84,000 के ही बैक खाते खुल पाये है। यह स्थिति तो तब है जबकि अलवर, अजमेर तथा उदयपुर जिलों का पूरा प्रशासन महीनों तक सिर्फ इसी कवायद में जुटा रहा, बावजूद इसके भी जो उपलब्धि हासिल हुई वह खोदा पहाड़ निकली चुहिया जैसी है।
वैसे तो आधार कार्ड बनाने की परियोजना पर संसदीय समिति ने बहुत से सवाल उठाये है, मगर संसद को दरकिनार करके भी आधार कार्ड बनाने का काम जारी है, इसके लिये संसद में कोई कानून बनाने की बात तो दूर संसदीय समिति की आपत्तियों पर भी गौर नही किया गया है।
वैसे भी आधार कार्ड से कोई नागरिकता की पहचान तो मिल नहीं रहीं है, इसे बनाने के लिये पहचान के सबूत लाना जरूरी है, बहुत सारे कार्डो के साथ एक और कार्ड जरूर बन जायेगा।
हमें यह समझना होगा कि यह पहचान का कार्ड नहीं है, इससे न तो नागरिकता मिलती है और ना ही बहुत सारे कार्ड रखने के झंझट से मुक्ति। हमारी पहचान तो उन्ही कार्डो से स्थापित होगी, लेकिन सत्ता को हमारी खबर लेने का यह एक उपकरण जरूर बन जायेगा। यह पहचान से ज्यादा नागरिकों की ट्रेकिंग करने का यंत्र बनेगा।
इसके जरिये हमारी सूचनाएं जरूर बड़ी कम्पनियों तक पहुंच जायेगी उन्हें पता चलेगा कि हमने कहां, क्या खरीदा है? जैसे बैंक वाले हमारी जानकारियां किसी और को नहीं मगर कम्पनियों को जरूर देते है, अब आधार कार्ड के जरिये जनता की सूचनाएं पुलिस, आई.बी. और सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे सारे शक्तिशाली लोगों तक पहुंचेगी। पहली बार एक ऐसा प्लेटफॅार्म तैयार हो रहा है, जहां हमारी सारी सूचनाएं एक जगह पर होगी तथा इसके दुरूपयोग के जरिये लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा ।
ताज्जुब की बात है कि इन सारी सूचनाओं को एकत्र करने वाली वे कम्पनियां है जिनका अमेरिका के रक्षा मंत्रालय से अनुबंध रहा है कुछ प्राइवेट कम्पनियों का तो कुख्यात अमेरिकन खुफिया एजेन्सी सीआईए से भी रहा है क्या इस खतरे के प्रति हमें आंख मूंद लेनी चाहिये?
आधार कार्ड के पक्ष धरों का कहना है कि ये सूचनाएं कभी भी सुरक्षा तथा व्यवसायिक एजेंसियों को नहीं दी जायेगी इनका उपयोग तो गरीबों को उनका हक दिलाने तथा उन्हे विकास से जोड़ने के काम में लिया जायेगा, मगर सच्चाई तो यह है कि इस तकनीक के चलते कई लोग इसके फायदे बाहर ही रह जायेंगे, नकद को बैंक तथा व्यक्ति के हाथों तक आते आते इतनी देरी हो जायेगी कि अन्ततः लोग इस व्यवस्था से ही तंग आकर इसको उखाड़ फैंकेगें मगर तब तक कितना खर्चा और कितनी तकलीफें सहनी होगी, इस पर विचार किया जाना आवश्यक है। हाल ही में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इस सिस्टम का उद्घाटन करते वक्त कहा कि उनके पास आधार कार्ड नहीं हैं क्योंकि उन्हें सुविधाएं लेने के लिये इसकी जरूरत नहीं है।
हमारा सुझाव है कि पहले दौर में यूआईडी को, एक साल के लिये सासंदों, मंत्रियों, विधायकों, कर्मचारियों तथा अधिकारियों के लिये काम में लिया जाये, उनकी तमाम आय, सम्पत्ति और बैंक खातों आदि के विवरण को आधार के साथ जोड़ दिया जाये तथा उससे कोई जादुई असर दिखे तो शायद हम बाकी के लोग भी इसे अपनाने के लिये तैयार हो जायेंगे वर्ना यह योजना ‘गेमचैंजर‘ नहीं बल्कि गर्वनमेंट चेंजर साबित हो सकती है।
(लेखकद्वय मजदूर किसान शक्ति संगठन के साथ कार्यरत है)
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