Monday, January 7, 2013

चुनावी राजनीति ही एक मात्र रास्ता नहीं


जन संसद 2012
  • अरुणा रॅाय व भंवर मेघवंशी
भारत में जनता के आन्दोलनों की राजनीतिक पद्धति का लम्बा इतिहास रहा है, लोक सरोकारों के लिये प्रतिबद्ध व्यवस्था विरोधी संघर्षों के आलोक में देखा जाये तो आजादी का आन्दोलन स्वयं ही में एक जन आन्दोलन था, महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात भी सत्ता की राजनीति का हिस्सा बनने की अपेक्षा जनहितकारी आन्दोलन का ही हिस्सा बने रहना स्वीकार किया था, उन्होंने तो तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी राजनीतिक दल का बाना त्याग कर एक सामाजिक सेवा का जन आन्दोलन बनने तक की सलाह दी थी, हालांकि उसे माना नहीं गया, बिनोबा का भूदान आन्दोलन हो अथवा लोक स्वातंत्रय की रक्षा के लिये लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा चलाया गया आपातकाल विरोधी आन्दोलन जन आन्दोलनों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुये, नब्बे के दशक के दौरान भारत में जन आन्दोलनों ने पुनः अपनी ऐतिहासिक भूमिकाओं को निभाना शुरू किया तथा इसके बाद से मुख्यधारा राजनीति ओर राजनीतिक विमर्श को जनता के संघर्षों, अभियानों, जन संगठनों व जन आन्दोलनों के मुद्दों ने मथना प्रारम्भ किया, जो आज तक बदस्तूर जारी है।

लोकतंत्र को लोगों के हित के लिये चलाने के लिये समय-समय पर देश के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने अपनी आवाजे उठाई, आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद धीरे-धीरे ’राज्य’ ने अपनी ’कल्याणकारी’ भूमिका को सीमित कर दिया, जिससे कई उत्पीडि़त व सदियों से वंचित समुदाय पूरी तरह हाषिये पर पहुंच गये, मुख्यधारा राजनीति से लोगों के मुद्दे और जनता की आवाजें गायब होती गई, एक तरफ वैश्विक पूंजी ने कथित समृद्धि की चकाचौंध पैदा की तो दूसरी तरफ आम भारतीयों में दीनता व दारूणता। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक व महिलाएं कथित विकास की मुख्यधारा की मार को सहन नहीं कर पाये, भूमण्डलीकरण जिसे अक्सर आर्थिक खुलापन कहा गया, उसने एक ही देश में दो देश निर्मित कर दिये, आज यह सर्वविदित तथ्य है कि हमारा देश स्पष्ट रूप से दो भागों में बंटा हआ है, एक निरन्तर समृद्ध होता इण्डिया है, दूसरा लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा भारत है, शायद भारत की यह नियति हो गई है कि वह इण्डिया के रहमोकरम पर जिन्दा रहे या विलुप्त हो जाये।
ऐसे ’भारत के लोग’ जिन्हें मजदूर, किसान, हमाल, मछुआरे, दलित, आदिवासी कुछ भी कह लीजिये, उनके हक में खड़े होने तथा उनकी पीड़ाओं को उजागर करने के काम में जन आन्दोलनों ने महत्ती भूमिका निभाई है। डॅां. बाबा आढव ने महाराष्ट्र में हमालों के लिये ’हमाल पंचायत’ बनाकर सराहनीय काम किया, वे अब बुजुर्गों के गरिमापूर्ण जीवन के लिये वृद्धावस्था में सब बुजुर्गों को पेंशन मिले, इस हेतु पेंशन परिषद के जरिये चल रहे आन्दोलन के केन्द्र में है, बड़े बांधों के विरूद्ध चले नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने विकास की पूरी बहस को नया मोड़ दिया तथा विस्थापन व पुनर्वास के मुद्दे को पूरी शिद्दत से उठाया, रजस्थान के ग्रामीण मजदूर किसानों ने ब्यावर के चांग गेट से सरकारी कागजों की फोटोकॅापी लेने की मांग उठाई, जो अन्ततः लम्बे संघर्ष के बाद आज सूचना का जन अधिकार का कानून बन पाया है, देश भर के सैकड़ों जन समूहों ने ’काम का अधिकार’ पाने के लिये लम्बा आन्दोलन चलाया, फलतः महात्मा गांधी नरेगा जैसा कानून पास हुआ और आज वह ग्रामीण भारत की जीवन रेखा बना हुआ है।
पंचायती राज उपबंध अधिनियम हो अथवा परम्परागत वन निवासियों को भूमि देने का वन अधिकार मान्यता अधिनियम, शिक्षा का अधिकार कानून हो अथवा अन्य कई सारे जनहितकारी कानून, ये सभी जन आन्दोलनेां के निरन्तर संघर्षो की बदौलत ही संभव हो पाये है।
आज भी जन आन्दोलन देश के राजनीतिक विमर्श को अपने कई मुद्दों के जरिये मथे हुये हैं, खाद्य सुरक्षा बिल, लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा कानून, शिकायत निवारण कानून, व्हिसल ब्लोअर बिल, बीज अधिनियम इत्यादि बहुत से अधिनियम अभी भी देश की औपचारिक संसद में पारित होने की प्रतीक्षा में अटके हुये हैं, संसद कभी भ्रष्टाचार के एक मुद्दे पर तो कभी एफडीआई पर गतिरोध का शिकार हो रही है, जिस संसद को जनता के हित में कानून बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी, वह हंगामों के चलते चल नहीं पा रही है और जनता ठगी सी महसूस कर रही है। यह भी देखा गया कि जब संसद को वैश्विक पूंजी के हित में कानून बनाने होते है तो कुछ ही मिनटों में बड़े फैसले कर लिये जाते हैं, पक्ष-विपक्ष आदि एक ही भाषा में बोलने लगते है मगर जैसे ही हाशिये पर धकेल दिये गये तबकों की भागीदारी का सवाल उठता है तो मुद्दों में पेंच फंसा दिया जाता है, देश की आधृी आबादी के लिये राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित कराने के लिये लाये गये 33 प्रतिषत भागीदारी वाले महिला आरक्षण बिल का अटका रह जाना, इसी दुर्भाग्य की ओर इशारा करता है।
खैर, जन आन्दोलनों को मुख्यधारा राजनीति की अन्तरआत्मा कहा जा सकता है क्योंकि जन आन्दोलनों ने न केवल राजनीति को लोक सरोकारी मुद्दों के लिये प्रतिबद्ध किया है बल्कि लोकतंत्र को मजबूत करने में भी अहम भूमिका अदा की है, ओडी़शा मंे पोस्को का संघर्ष हो अथवा महाराष्ट्र में जैतापुर आन्दोलन या वर्तमान में तमिलनाडु मे चल रहा कुडनकुलम का जन संघर्ष, लोगों के पक्ष में जन आन्दोलन ही खड़े दिखाई पड़ते हैं, सरकारें अपने ही नागरिकों के दमन पर उतारू हो गई है, दुर्गम नक्सल इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं पंहुचाने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता डॅा. विनायक सेन को नक्सलवादी बताकर जेल में रखा गया, सीमा आजाद को उम्र कैद की सजा सुनाई गई, डॅा. सुनीलम को मुलताई आन्दोलन के जरिये किसानों की बात उठाने की सजा आजीवन कारावास के रूप में मिली है और झारखण्ड की जेल में आदिवासी अधिकारों की संघर्षशील नेत्री दयामणी बारला सलाखों के भीतर कैद है, राजस्थान के अन्यायपूर्ण उत्खनन के विरोधी कार्यकर्ता कैलाश मीणा अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिये भागते फिर रहे है तो कबीर कला मंच की शीतल साठे अपने तमाम सारे कलाकार साथियों के साथ भूमिगत जीवन जीने को मजबूर है, फेसबुक पर एक टिप्पणी मात्र से दो लड़कियां गिरफ्तार कर ली जाती है, तो कुडनकुलम के हजारों नागरिकों पर देशद्रोही होने का मामला चलाया जाता है, ऐसे में हमारे लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता की निरन्तर सीमित होती जा रही पहचान को बचाने के लिये आज देश में जन अन्दोलन ही एक मात्र उम्मीद की किरणें बने हुये हैं, वे गरीबों के हर संघर्ष में साथ खडे है, वे इरोम शर्मिला के आमरण अनषन से लेकर डॅा. सुनीलम और दयामणी बारला तक, खाद्य सुरक्षा एवं लोकपाल से लेकर महिला आरक्षण बिल पारित कराने तक, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा महिला जैसे वंचित व उत्पीडि़त तबकों के सबसे मुखर पैरोकार बने हुये हैं। जन आन्दोलनों ने यह साबित कर दिया है कि उनका संघर्ष चुनावी राजनीति से बुहत ज्यादा महत्वपूर्ण है तथा वहीं मुख्यधारा राजनीति के चरित्र को पुनः लोकोन्मुखी बनाने की दिशा में कामयाब होगा।
दिल्ली में देशभर के 53 जन संघर्षों, अभियानों व आन्दोलनों द्वारा 26 से 30 नवम्बर तक जंतर मंतर पर की गई ’जनसंसद’ को भी जनआन्दोलनों को उसी लोक राजनीति का फलित माना जा सकता है, इस जन संसद का उद्घोष लोकतंत्र की पुर्नप्राप्ति था, जैसा कि विदित है कि 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने आजाद भारत का संविधान स्वीकारा था, उसी ऐतिहासिक मौके पर 63 वर्ष बाद 26 नवम्बर 2012 को संविधान को केन्द्र में रखकर यह जन संसद की गई तथा पूछा गया कि नागरिको को दी गई संवैधानिक गारण्टी का क्या हुआ, हमारे मौलिक अधिकार हमें मिल पाये या नहीं ? हमने क्यों नीति निर्देशक तत्वों की देश की नीतियां बनाने में अवहेलना कर दी ? इतना ही नहीं बल्कि इस जन संसद ने पूंजी के हित में काम कर रहे नेताओं, जन विरोधी नीतियों और सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाये।
यह भी साबित किया कि देश के नागरिक सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष को तैयार है, जन आन्दोलनों की जन संसद तक की यात्रा हमारे लोकतंत्र को राह पर लाने की ही कवायद है, असल में यह असली जनतंत्र को कायम करने की दिषा में एक और समेकित प्रयास के रूप में देखी जा सकती है, देश भर के जन आन्दोलनों के 700 लोगों का पांच दिनों तक लगातार जंतर मंतर पर डटे रहना तथा देश की औपचारिक संसद को यह सन्देष देना कि आप भले ही शोरगुल मचाओ और संसद मत चलने दो मगर देश की साधारण जनता को लोकतंत्र व संविधान की चिन्ता है तथा वह संसदीय ढांचों को महत्वपूर्ण मानती है इसलिये इस जन संसद के जरिये उन मुद्दों को उठा रही है जिन्हें कायदे से तो चुने हुये प्रतिनिधियों को चुनी हुई संसद में उठाना चाहिये था, मगर जब औपचारिक संसदीय ढांचे विचलन व विभ्रम के शिकार हो जाते हैं तो इसी प्रकार की जन संसदीय जन प्रक्रियाएं उन्हें पुनः राह पर लाने का काम करती हैं तथा ऐसे वक्त में मात्र जनता के प्रतिनिधि नहीं बल्कि जनता स्वयं बोलने लगती है। यही भारत में जन आन्दोलनों की सार्थकता है कि इन्होने पुनः जनता को ही सशक्त किया है तथा जिस सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता की उम्मीद डॅा. अम्बेडकर ने संविधान लागू करते वक्त की थी, उसकी प्राप्ति के लिये फिर से कमर कसी है, इतना ही नहीं बल्कि जन संसद के दौरान देश भर के लगभग सभी नामचीन जन संघर्षकारियों का एक मंच पर आकर जन संसद के जरिये अपने मुद्दों को उठाना और एक सामूहिक ’जन घोषणा पत्र’ की उद्घोषणा करना भी महत्वपूर्ण रहा है।
जन संसद के जन घोषणा पत्र में उठाये गये मुद्दों ने वर्ष 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के लिये राजनीतिक दलों को एजेण्डा प्रदान कर दिया है तथा यह ताल ठोंक दी है कि हम तय करेंगे कि किन मुद्दों पर चुनाव लड़ा जायेगा ? 2014 चुनाव एक लक्ष्य है, जन संसद को उसकी उल्टी गिनती भी माना गया, यह केवल एक आयोजन मात्र नहीं बल्कि ठोस कार्यक्रम भी है तथा हमारी चुनी हुई संसद को चेतावनी भी कि वह जनहित के जितने भी कानून वर्तमान सत्र व शेष बचे समय के दौरान लाये तथा पारित करे तथा हवाई व भावनात्मक तथा विभेदकारी मुद्दों पर नहीं जनता के बुनियादी मुद्दों को केन्द्र में रखकर चुनाव में उतरें। अन्यथा जनता उन्हें नकार देगी।
इस जन संसद के जरिये हमने अपने संविधान, उसमें प्रदत्त मौलिक अधिकार, नीति निर्देषक तत्वों को याद किया, संविधान की प्रस्तावना को दोहराया तथा लोकतंत्र की पुर्नप्राप्ति के लिये एक अनूठी शपथ भी ली, जिस तरह देश भर के जन आन्दोलनकारियों से लेकर देश भर के बुद्धिजीवी, मीडियाकर्मी, पूर्व जस्टिस, वकील, मजदूर, किसान, दलित, अदिवासी व महिला समूहों के प्रतिनिधियों ने जन संसद के जरिये दिल्ली में दस्तक दी है, वह देश की मुख्यधारा राजनीति को दिशा देने की जन आन्दोलनों की ऐतिहासिक प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाने का कार्य प्रतीत होता है तथा स्पष्ट भी करता है कि जनता और उसके द्वारा खड़े किये गये आन्दोलन देश के लोकतंत्र को पुनः पटरी पर लाने में सक्षम है, उसके लिये चुनावी राजनीति ही एक मात्र रास्ता नहीं है।

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