धर्मनिरपेक्षता भारत जैसे धर्मप्राण देश में एक श्रापित शब्द है, इसे आम जन जीवन में एक बहिष्कृत अवधारणा के रूप में लिया जाता रहा है, यह भी कहा जा सकता है कि इस देश का जैसा मानस है, उसमें यह एक सड़ा हुआ विचार है क्योंकि इस विचार में गतिशीलता के अभाव है, ठहराव ज्यादा है। नकार की ध्वनि अधिक है, स्वीकार भाव कम है, विध्वंस की आहटें है, सृजन के सरोकार नगण्य है।
ऐसी बात कहने का दुःसाहस इसलिए कर रहा हूं क्योंकि पिछले 20 वर्षों से मैंने इस विचार को जीया और इसे पुष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर दो दशक के बाद मैं रूक कर सोचता हूं तो पाता हूं कि यह कदमताल ही थी, क्योंकि कहीं पहुंचा ही नहीं गया।
यह मेरे लिए रूक कर आत्म आलोचन करने का अवसर है क्योंकि भारत जैसे देश में धर्मनिरपेक्षता का विचार अब तक आम जनता का लोकप्रिय विचार क्यों नहीं बन पाया है। जरूरी नहीं कि हर अच्छा विचार लोकप्रिय हो अथवा हर जनप्रिय विचार अच्छा हो मगर यह तो होना ही चाहिए कि अच्छे विचारों के प्रति समाज में एक स्वीकार भाव या मान्यता की स्थिति तो बने, मगर यह दुःख के साथ कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को सामाजिक स्वीकृति आज तक नहीं मिल सकी है, वह आज भी ‘थोंपी गई अवधारणा’ के रूप में ही स्थापित होने की कोशिश में है और स्थापित हो नहीं पा रही है।
तो क्या हम उन लोगों के तर्क को स्वीकार लें जो यह कहते है कि यह एक यूरोपियन विचार है, जिसे हमने आयात करके अपने संविधान की प्रस्तावना में ठूंस दिया है? या हम यह माने कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का तत्व सदैव से ही मौजूद था, जो आजादी के बाद नए फॅार्म और नए कंटेट के साथ परीलक्षित हो रहा है, वरना तो यह विचार मूलतः भारतीय अवधारणा है और हरेक भारतीय स्वभावतः धर्म निरपेक्षता के प्रति कटिबद्ध है। मुझे दोनों ही चरम की अवधारणाएं लगती है और दोनों ही असत्य के करीब है।
धर्मनिरपेक्षता को समान्यतः इस प्रकार परिभाषित किया जाता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा या कि राज्य किसी धर्म, पंथ संप्रदाय को प्रोत्साहित नहीं करेगा। कई बार सिद्धान्तों में इस प्रकार की निरपेक्षता बेहद भली लगती है। मगर व्यवहार में यह तटस्थता कहीं नजर नहीं आती है। पहली बात तो यह है कि यह देश धर्म सापेक्ष देश है, यहां धर्म के बिना जी पाना लोगों के लिए संभव नहीं है, इसलिए धर्म को राज्य के ऊपर नियंत्रण करने वाली सत्ता के रूप में निरुपित किया गया, प्राचीन साहित्य में पूछा गया कि - राजा को कौन दंडित कर सकता है, तब जवाब मिला कि- धर्म राजा को भी दंडित कर सकता है। इस प्रकार धर्म को सर्वोच्च स्थान मिला, फिर भी पश्चिम देशों की तरह भारत में धर्म और राज्य में कभी कोई गठबंधन नहीं बना, धर्म की अवधारणा ने लोक को हानि नहीं पहुंचाई वह सदैव ही निरपेक्ष सत्ता के तौर पर रहा और कभी कभार राज्य की निगरानी करता रहा। पश्चिम की तरह भारत के किसी धर्मगुरू ने किसी राष्ट्र राज्य के सर्वोच्च पदाधिकारी होना स्वीकार नहीं किया, हद से हद यहां किसी ऋषि, मुनि, संत, योगी, जन आदि ने संरक्षक होना जरूर स्वीकार किया, राज्य उनके लिए भोग की वस्तु नहीं था, बल्कि दायित्व था, पश्चिम में तो चर्च, वैटिकन, पोप सत्ता पर काबिज ही हो गए, पोप तो पापमुक्ति के प्रमाण पत्र ही बांटने लगे और वैटिकन एक देश बन गया, जिसके राष्ट्राध्यक्ष महामहिम पोप हो गए, इसलिए पश्चिमी संस्कृति को धर्म और सत्ता को अलग करना पड़ा, भारत में धर्म एक विज्ञान है जबकि पश्चिम में धर्म और विज्ञान आमने-सामने खड़े है, भारत में नवाचारी सोच के व्यक्ति को जिंदा जला देने का उदाहरण नहीं है मगर पश्चिम में भीड़ ने गैलीलियो की तरह कईयों को जिंदा जलवा दिया था, भारत में धर्म सता और विज्ञान का सहयात्री रहा है। इसलिए भारत में धर्म से दूर भागने की अथवा उससे तटस्थ रहने की या कि उससे निरपेक्ष रहने की जरूरत ही महसूस नहीं की गई, भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए, अथवा यो कहें कि मानव जीवन को सार्थक करने के चार लक्ष्य बनाए गए जिन्हें- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहा गया, इन चार पुरुषार्थों की शुरूआत ही धर्म से होती है, ऐसे में धर्म निरपेक्ष होना एक भारतीय के लिए अजीब सी विडंबनात्मक स्थिति है, इसलिए अधिकांश लोगों को लगता है जो करीब-करीब सच ही है कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय परिप्रेक्ष्य में जड़रहित वृक्ष है, जो कि सूखी चट्टान पर बोया गया है, जिसने कभी भी जमीन को नहीं छुआ और दिन-ब-दिन उसकी शाखें पीली पड़ती जा रही है, डर है कि कहीं एक दिन यह विचार मर ही न जाए।
मुझे लगता है कि अगर यह अभारतीय विचार मरता है तो इसके जिम्मेदार भारतीय लोग नहीं होंगे, इसके लिए वह अंग्रेजी भाषी ‘इलीट’ तबका जिम्मेदार होगा जो इस गैर भारतीय अवधारणा को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश में है, जो अंग्रेजी में सोचते है, अंग्रेजी में बोलते है, अंग्रेजी ही लिखते है और उनका जीवन अंग्रेजीयत की ही भेंट चढ़ चुका है, उन्हें भारतीय स्थापत्य और कला, साहित्य और संस्कृति में कोई सार नजर नहीं आता है, उनके लिए रहीम, रसखान, कबीर, जायसी, मीरा और मलूकादास कोई मायने नहीं रखते, उन्हें पाब्लो नेरूदां, शेक्सपियर, मैक्सिम गोर्की जैसे रचनाकारों में ही साहित्य दिखता है, उनके लिए पिकासो ही एकमात्र चित्रकार है। भारत और भारतीयता के प्रति उनकी हिकारत और अजनबीयत हैरतअंगेज है, वे खाते भारत की है मगर बीन पश्चिम की बजाते है, उनका इस देश से कोई लेना-देना नहीं है, सच मानिए तो वे इस देश में रह रहे है तो हम पर अहसान ही कर रहे है, ऐसे लोगों के लिए सेकुलरिज्म एक फैशन है, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस देश में 50 लोग भी ढूंढना मुश्किल है। सेकुलरिज्म के प्रति ईमानदारी से काम कर रहे हो, बाकी तो अपनी राजनीति चमका रहे या अपनी-अपनी दुकानें चला रहे है। यह सेकुलरिज्म भी कई प्रकार का है, हरेक के लिए उसकी अलग परिभाषा है, सब अपने फायदे के लिए सेकुलर होने का लबादा ओढ़े हुए है, कांग्रेस के लिए सेकुलरिज्म अल्पसंख्यकों को डराने धमकाने का एक उपकरण मात्र है, वहीं नीतिश कुमार के लिए सेकुलरिज्म आगामी चुनाव में बिहारी मुस्लिमों के वोट और प्रधानमंत्री के पद के प्रति स्वयं की लालसा की अभिव्यक्ति मात्र है, ज्यादातर एनजीओ के लिए सेकुलरिज्म एक प्रोजेक्ट मात्र है, वहीं हम जैसे कथित बु(िजीवियों के लिए यह सेमीनारों और प्रशिक्षणों के लिए कभी न खत्म होने वाला विषय है, जिसके सहारे हम अपनी रोजी-रोटी चलाते है, भाषण देते है और किताबें लिखते है मगर सवाल फिर से वही है कि फिर धर्मनिरपेक्षता का इस देश में भविष्य क्या है? एक धर्मभीरू या धर्मप्राण अथवा धर्मनिष्ठ देश में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा कब तक जीएगी, क्योंकि इस देश में तो गांधी को भी अपनी राजनीति रामधुन, प्रार्थना सभा व मद्भागवत गीता से चलानी पड़ती है और डॅा.अंबेडकर भी अंततः बुद्ध की शरण में जाकर ‘धम्मम् शरणम् गच्छामि’ कह गए।
इसलिए मुझे तो लगता है और यह सदैव ही लगता था कि भारत में धर्म के बिना जीना ‘अधर्म’ में जीना है और यही एक कारण है कि धर्मनिरपेक्षता को कभी भी सर्वधर्म समभाव के रूप में नहीं देखा गया, इसे नास्तिकता से जोड़कर रखा गया, अक्सर धार्मिक लोग सोचते है कि धर्मनिरपेक्ष वही लोग है जो नास्तिक है जबकि ऐसा हकीकत में है नहीं, क्योंकि मैंने देखा है जो लोग सेकुलर होने का दावा करते है वे आपको खोले के हनुमान जी के यहां प्रसाद चढ़ाते हुए भी मिल जाएंगे और घर में तुलसी पूजन भी करेंगे, बंगाल की तमाम धर्मनिरपेक्ष ताकतें तो काली के पूजन से ही सेकुलर होती है, सद्भावना मंच की सभाएं पांच वक्त की नामाज के लिये बार बार स्थगित होती है और हर मुस्लिम तमाम कायनात को मुसलमान बनाने के पाक काम में जुटा है तो क्रिश्चियन सुसमाचार सुनाने को उतावला है, हम भी कृष्णवंतो विश्म्आर्यम् के उद्घोष के साथ पूरी सृष्टि आर्य बनाने निकल पड़े है ऐसे में भारत की सरजमीं पर सेकुलरिज्म महज एक ऐसा अलफाज है जो लफ्फाजी के काम आता है, उसका इस्तेमाल बहस मुबाहिसों और सार्वजनिक मंचों पर किया जाता है, जिंदगी जीने में यह अवधारणा कहीं काम में नहीं आती है या कि यों कहे कि धर्मनिरपेक्षता केवल विचार की धारणा है, व्यवहार की नहीं, इसलिए धर्मनिरपेक्षता एक शब्द के रूप में और एक स्थिर विचार के रूप में तो सदैव विद्यमान रहे। मगर कभी भी उसे जनजीवन का आश्रय नहीं मिलेगा, सेकुलरिज्म के झूठे झंडाबरदारों, अब सावधान हो जाओ, शायद तुम्हारे दिन लद जाए, या इस पाखंड को छोड़कर असल में इस विचार को जीओ, निर्णय आपको ही करना है।
- भंवर मेघवंशी
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है और खबरकोश डॅाटकॅाम के संपादक है।)