Saturday, November 15, 2014

कतरा कतरा आबरू

कतरा कतरा आबरू
....जहां सभ्यता नंगी खड़ी है।
‘‘दोपहर होते-होते नीचे हथाई पर पंच और गांव के मर्द लोग इकट्ठा होने लगे। उनकी आक्रोशित आवाजें ऊपर मेरे कमरे तक पहुंच रही थी, सबक सिखाने की बातें हो रही थी। आज सुबह से ही हमारे परिवार को हत्यारा समझकर गांव से भाग जाने की अफवाह जान-बूझकर फैला दी गई थी, जबकि हम निकटवर्ती नाथेला उप स्वास्थ्य केन्द्र पर अपनी गर्भवती बेटी लीला को प्रसव पीड़ा उठने पर नर्स के पास लेकर गए थे। जब अफवाहों की खबर हमें लगी तो बेटी को वहीं छोड़कर घर लौटे। तब तक 50-60 लोग आ चुके थे। धीरे-धीरे और लोग भी आ रहे थे। हम अपने घर में ही थे। नीचे आवाजें तेज होने लगी। बुलाओ नीचेकी एक साथ कई आवाजें। तब धड़धड़ाते हुए कई नौजवान मर्द सीढि़यां चढ़कर मेरे घर में घुस आए। पहले मुझे चोटी से पकड़ा, फिर पांवों की ओर से पकड़कर घसीटते हुए नीचे ले गए, जहां पर सैंकड़ों पंच, ग्रामीण अन्य तमाशबीन खड़े थे। मैं सोच रही थी ये मर्द भी अजीब होते हैं, कभी कालीमाईकहकर पांव पड़ते है तो कभी कलमुंहीकहकर पैर पकड़ कर घसीटते है। मर्द कभी औरत को महज इंसान के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। उसे या तो पूजनीय देवी बना देते है या दासी, या तो अतिमानवीय मान कर सिर पर बिठाल देते है या अमानवीय बनाकर पांव की जूती समझते है।
वे मुझे घसीटकर नीचे हथाई पर ले आए। उन्होंने मेरे दोनों हाथों में तीन-तीन ईंटें रखी और सिर पर भारी वजन का पत्थर रख दिया। मेरा सिर बोझ सहने की स्थिति में नहीं था। पत्थर नीचे गिर पड़ा, हाथों में भी दर्द हो रहा था, उन्होंने मेरी कोहनियों में लकड़ी के वार किए, वे मुझसे पूछ रहे थे- सच बता। मैं क्या सच बताती? जाने कौन सा सच वे जानना चाहते थे। मैंने कहा-‘‘म्है नहीं जाणूं (मैं नहीं जानती), म्हूं कठऊं कहूं (मैं कहां से कहूं)।’’
एक अकेली औरत और वह भी हत्या जैसे संगीन आरोप के शक में पंचों की आसान शिकार बनी हुई, अगर निर्भीकता से बोले तो पुरुषों का संसार चुनौती महसूस करने लगता है। लोगो को उसका निडर होकर बोलना पसंद नहीं आया। आखिर तो वह अभी तक औरत ही थी ना। क्या वह अरावली की इन पहाडि़यों के बीच बसे इलाके के प्राचीन कायदों को नहीं जानती थी? क्या वह भूल गई थी, पिछले ही साल तो राजस्थान के राजसमंद जिले के इसी चारभुजा थाना क्षेत्र में बुरे चाल-चलन के सवाल पर एक बाप ने अपनी ही बेटी का सर तलवार से कलम कर डाला था और फिर लहू झरते उस सिर को बालों से पकड़े, बाप उसे थाने में लेकर पहुंच गया था।
इज्जत के नाम पर, ऐसा तालिबानी कृत्य करते हुए यहां के मर्द तनिक भी नहीं झिझकते है तो भी इसकी यह बिसात, अरे यह तो सिर्फ औरत जात है यहां तो किसी मर्द पर भी हत्या का शक मात्र हो जाए तो उसे गधे पर बिठाकर घुमाते है पंच। फिर यह औरत है ही क्या?
बस फिर देर किस बात की थी। इस छिनाल को नंगा करो...। एक साथ संैकड़ों आवाजें! एक महिला को निर्वस्त्र देखने को लपलपाती आंखों वाले कथित सभ्य मर्द चिल्ला पड़े। उसे नंगा करो।उसके कपड़े जबरन उतार लिए गए। वह जो आज तक रिवाजों से, कायदों से, संस्कृति और कथित संस्कारों के वशीभूत हुई मंुह से घूंघट तक नहीं उघाड़ती थी। आज उसकी इज्जत तार-तार हो रही थी, इस बीच 2 नवम्बर 2014 को आत्महत्या करने वाले वरदी सिंह की बेवा सुंदर बाई चप्पलों से उसे मारने लगी। एक महिला पर दूसरी महिला का प्रहार, मर्द आनंद ले रहे थे।
जमाने भर की नफरत की शिकार अपनी पत्नी की हालत उसके पति उदयसिंह से देखी नहीं गई। वह अपने बेटों पृथ्वी और भैरों के साथ बचाव के लिए आगे आया। उसके द्ुस्साहस को जाति पंचायत ने बर्दाश्त नहीं किया। सब उस पर टूट पड़े। मार-मार कर अधमरा कर डाला तीनों बाप-बेटों को और उनको उनके ही घर में बंद कर दिया गया। ‘‘अब तुझे कौन बचाएगा छिनाल। बोल, अब भी वक्त है, सच बोल जा, तेरी जान बख्श देंगे। स्वीकार कर ले कि तेने ही मारा है वरदी सिंह को, तू उसकी बेवा सुंदर को नाते देना चाहती है, तेरा कोई स्वार्थ जरूर है, तूने ही मारा है उसे।’’
पीडि़ता ने मन नही मन सोचा, यह कैसा गांव है, अभी जिस दिन वरदी सिंह ने आत्महत्या की तो पुलिस को इत्तला देने की बात आई थीं तब सारा गांव एकजुट हो गया कि पुलिस को बताने की कोई जरूरत नहीं है। फिर बिना एफआईआर करवाए, बिना पोस्टमार्टम करवाए ही चुपचाप मृतक वरदी सिंह की लाश को इन्हीं लोगों ने जला दिया था तथा उसकी आत्महत्या को सामान्य मौत बना डाला था... और आज उसकी हत्या का आरोप उस पर लगाकर उसकी जान के दुश्मन बन गए है।
‘‘अच्छा... ये ऐसे नहीं बोलेगी। इसके मंुह पर कालिख पोतो, बाल काटो इस रण्... के! और गधे पर बिठाओ कलमुंही को।’’ जाति पंचायत का फरमान जारी हुआ। फिर यह सब अकल्पनीय घटा- शर्म के मारे नग्न अवस्था में गठरी सी बनी हुई पीडि़ता का काला मंुह किया गया, बाल काटे गए, जूतों की माला पहनाई गई और गधे पर बिठा कर उसे पूरे गांव में घुमाया गया। इतना ही नहीं उसे 2 किलोमीटर दूर स्थित थुरावड़ के मुख्य चैराहे तक ले गए। यह कथा पौराणिक नहीं है और ना ही सदियों पुरानी। यह घटना 9 नवम्बर 2014 को घटी।
पीडि़ता रो रही थी, मदद के लिए चिल्ला रही थी, उसके आंसू चेहरे पर पुती कालिख में छिप गए थे और रुदन मर्दों के ठहाकों में। औरतें भी देख रही थी, वे भी मदद के लिए आगे नहीं आई। थुरावड़ चैराहे पर तो एक औरत ने उसके सिर पर किसी ठोस वस्तु का वार भी किया था। पढ़े-लिखे, अनपढ़, नौजवान, प्रौढ़, बुजुर्ग तमाम मर्द इंसान नहीं हैवान बन गए थे। लगभग पांच घंटे तक हैवानियत और दरिंदगी का एक खौफनाक खेल खेला गया मगर किसी की इंसानियत नहीं जागी। जो लोग इस शर्मनाक तमाशे में शरीक थे, उनके मोबाइल तो पंचों ने पहले ही रखवा लिए थे ताकि कोई फोटो या विडियो क्लिपिंग नहीं बनाई जा सके, मगर राहगीरों व थुरावड़ के लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया।
थुरावड़ पंचायत मुख्यालय है। वहां पर पटवारी, सचिव, प्रधानाध्यापक, आशा सहयोगिनी, रोजगार सहायक, सरपंच, वार्ड पंच, नर्स, कृषि पर्यवेक्षक इत्यादि सरकारी कर्मचारियों का अमला बिराजता है। इनमें से भी किसी ने भी घटना के बारे में अपने उच्चाधिकारियों को सूचित नहीं किया और ना ही विरोध किया। वह अभागिन उत्पीडि़त होती रही। अपनी गरिमा, लाज, इज्जत के लिए रोती रही। चीखती-चिल्लाती, रोती-कळपती जब उसकी आंखें पथरा गई और निरंतर मार सहना उसके वश की बात नहीं रही तो वह गधे पर ही बेहोश होकर धरती पर गिरने लगी। मगर दरिंदे अभी उसको कहां छोड़ने वाले थे। वे उसे जीप में डालकर वापस उसके गांव थाली का तालाब की ओर ले चले, रास्ते में जब होश आया तो फिर वही सवाल-सांच बोल, कुणी मारियो’ (सच बोल, किसने मारा)। उसने कहा ‘‘मेरा कोई दोष नहीं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैं क्या बोलूं।’’ तब उसकी फिर पिटाई की गई, तभी अचानक रिछेड़ चैकी और चारभुजा थाना पुलिस की गाडि़यां वहां पहुंच गई। बकौल पीडि़ता-‘‘पुलिस उसके लिए भगवान बनकर आई, उन दरिंदों से पुलिस ने ही छुड़वाया वरना वे मुझे मार कर ही छोड़ते।’’
बाद में पुलिस पीडि़ता, उसके पति व बच्चों सहित पूरे परिवार को चारभुजा थाने में ले गई, ढाढ़स बंधाया और मामला दर्ज किया, उसे अस्पताल ले गए, डाॅक्टरों को दिखाया, इलाज करवाया और रात में वहीं रखा।
अब पुलिस के सामने चुनौती थी, आरोपियों की गिरफ्तारी की। सुबह पुलिस ने गांव में शिकंजा कसा, जो पंच मिले उन्हें पकड़ा और थाने में ले गई। थाने तक पहुंचने तक भी इन पंचों को अपने किए पर कोई शर्मिन्दगी नहीं थी। वे कह रहे थे-‘‘इसमें क्या हो गया? वो औरत गलत है, उसने गलती की, जिसकी सजा दी गई।’’ वे कानून-वानून पर भरोसा नहीं करते, अपने हाथों से तुरंत न्याय और फटाफट सजा देने में यकीन करते है। उनका मानना है कि- ‘‘हमने कुछ भी गलत नहीं किया, हम निर्दोष है।’’ यहां इसी प्रकार के पाषाणयुगीन न्याय किए जाते है, जो कि अक्सर औरतों तथा गरीबों व कमजारों के विरुद्ध होते है। यहां खाप पंचायत के पंचों का शासन है, वे कुछ भी कर सकते है, इसलिए यह शर्मनाक कृत्य उन्होंने बेधड़क किया।
पंचों को घटना की गंभीरता का अहसास ही तब हुआ, जब उन्हें शाम को घर के बजाय जेल जाना पड़ा और पिछले कई दिनों से करीब 30 लोग जेल में पड़े है, अब उन्हें अहसास हो रहा है कि - शायद उनसे कहीं कोई छोटी-मोटी गलती हो गई है।
घटना के दूसरे दिन जिला कलक्टर राजसमंद कैलाश चंद्र वर्मा तथा पुलिस अधीक्षक श्वेता धनखड़ मौके पर पहुंचे, महिला आयोग की अध्यक्ष लाडकुमारी जैन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के प्रवक्ता फरहान हक एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन व स्कूल फाॅर डेमोक्रेसी और महिला मंच के दलों ने भी पीडि़ता से मुलाकात की है। मगर आश्चर्य की बात यह है कि इसी समुदाय के एक पूर्व जनप्रतिनिधि गणेश सिंह परमार यहां नहीं पहुंचे, ना कोई वार्ड पंच आया और ना ही सरपंच, स्थानीय विधायक एवं पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह राठौड़ भी नहीं आए, इसी जिले की कद्दावर नेता और सूबे की काबीना मंत्री किरण माहेश्वरी भी घटना के पांच दिन बाद आई और मुख्यमंत्री की ओर से राहत राशि देकर वापस चली गई। गृहमंत्री हो अथवा मुख्यमंत्री किसी के पास इस पीडि़ता के आंसू पौंछने का वक्त नहीं है। कुछ मानवाधिकार संगठन, मीडिया और पुलिस के अलावा सबने इस शर्मनाक घटना से दूरी बना ली है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर तो आरोपियों को बचाने के प्रयास के आरोप भी लग रहे है, वहीं राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित इस कांड के विरूद्ध मुख्य विपक्षी दल ने तो बोलने की जहमत तक नहीं उठाई है।
जब मामला मीडिया के मार्फत थाली का तालाब गांव से निकलकर देश, प्रदेश और विदेश तक पहुंचा और चारों ओर थू-थू होने लगी, तब राज्य की नौकरशाही चेती और पटवारी, स्थानीय थानेदार, नर्स, प्रधानाध्यापक, वार्ड पंच, उप सरपंच और सरपंच आदि को निलंबित किया। राशन डीलर तो इस जघन्य कांड में खुद ही शामिल हो गया था। उसका प्राधिकार पत्र खत्म करने की कार्यवाही भी अमल में लाई गई है, मगर प्रश्न यह है कि सांप के निकल जाने पर ही लकीर क्यों पीटता है प्रशासन? क्या उसे नहीं मालूम कुंभलगढ़ का यह क्षेत्र महिला उत्पीड़न की नरकगाह है, यहां डायनबताकर कई औरतें मारी गई है। हत्या, जादू-टोने के शक में महिलाओं पर अत्याचार आम बात है, आज भी इस इलाके में जाति के नाम पर खौफनाक खाप पंचायतों के तालिबानी फरमान लागू होते है, सरकारी धन से बने सार्वजनिक चबूतरों पर बैठकर खाप पंच औरतों तथा गांव के कमजोर वर्गों के विरुद्ध खुले आम फैसले करते है, सही ही कहा था संविधान निर्माता अंबेडकर ने कि गांव अन्याय, अत्याचार तथा भेदभाव के मलकुण्ड है।
सबसे ज्वलंत सवाल अभी भी पीडि़ता व उसके परिवार की सुरक्षा का है, उसके पुनर्वास तथा इलाज का है। न्याय देने और उसे क्षतिपूर्ति देने का है। सरकार से किसी प्रकार की मदद के सवाल पर पीडि़ता ने कहा-‘‘ पुलिस ने मुझे बचाकर मदद की है, बाकी मेरे हाथों की पांचों अंगुलियां सलामत है तो मैं मेहनत मजदूरी करके जी लूंगी।’’
मुझे पीडि़तों की इस बात को सुनकर पंजाब के संघर्षशील दलित कवि और गायक कामरेड बंत सिंह की याद हो आई, जिनको अपनी बेटी के साथ दबंगों द्वारा किए गए बलात्कार का विरोध करने की सजा उनके हाथ-पांव काट कर दी गई। जब बंत सिंह होश में आए तब उन्होंने कहा-‘‘जालिमों ने भले ही मेरे दोनों हाथ व दोनों पांव काट डाले है मगर मेरी जबान अभी भी सलामत है और मैं अत्याचार के खिलाफ बोलूंगा।’’ सही है, इस पीडि़ता ने भी अपनी अंगुलियों की सलामती और बाजुओं की ताकत पर भरोसा किया है तथा उसे लगता है कि उसकी अंगुलियां सलामत है तो वह संघर्ष करते हुए मेहनत-मजूरी से जीवन जी लेगी। पीडि़ता की तो अंगुलियां सलामत है मगर हमारे इस पितृसत्तात्मक घटिया समाज का क्या सलामत है, जो उसे जिंदा रखेगा? पीडि़ता के पास तो अपना सच है और पीड़ा की यादें है, ये यादें उसके जीने के संघर्ष का मकसद बनेगी, मगर हम निरे मृतप्रायः लोगों के पास अब क्या है जो सलामत है? अगर अब भी हम सड़कों पर नहीं उतरते है, अन्याय और अत्याचार की खिलाफत नहीं करते है तो हमारा कुछ भी सलामत नहीं है। हम पर लाख-लाख लानतें और करोड़ों-करोड़ धिक्कार!
- भंवर मेघवंशी
(लेखक राजस्थान में कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्षरत है।)

Thursday, March 27, 2014

नरेन्द्र मोदी का दलित चिन्तन

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Tuesday, March 4, 2014

मोदी जी, तो यह है आपका गरवी गुजरात !

  • भंवर मेघवंशी
आजकल हर जगह ‘एक भारत - श्रेष्ठ भारत’ का विज्ञापन दिखलाई पड़ता है, जिसमें गुजरात के अनुभवों से भारत की उम्मीदों को जोड़ते हुये देश में सुराज्य की स्थापना का आह्वान किया गया है। सरकर का धर्म-भारत, धर्मग्रंथ-संविधान, भक्ति-देशभक्ति, शक्ति-जनशक्ति के काव्यात्मक पंक्तियों के साथ सवा सौ करोड़ देशवासियों की भलाई की कामना दर्शाते हुये इसे आपकी सरकार की कार्यशैली के रूप में रेखांकित किाय गया है और सार्मथ्य, सम्मान एवं समृद्धियुक्त ‘नये भारत’ की ओर चलने की बात कही गई है। जरूर चलेंगे मोदी जी, लेकिन रात दिन देशभर में लाखों लोगों के बीच विकास का दावा करने और राष्ट्र को एक श्रेष्ठ राष्ट्र बनाने के संकल्प को दोहराते-दोहराते अगर आप थोड़ी सी फुर्सत में हो तो जरा उस गुजरात के विकास की बात कर लें, जिसे आप एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते रहे है। 
निश्चित रूप से आपने देश भर के बड़े मुनाफाखोर उद्योग घरानों को गुजरात में आमंत्रित किया है, उन्हें मुफ्त जमीनें, टेक्सों में रियायतें, चमचमाती सड़के और अबाध ऊर्जा दी है, ताकि वे और फलफूल सकें तथा अपनी तिजोरियां भर सके, मगर उन 60 हजार छोटे स्तर के उद्योग धंधों का क्या हुआ जो विगत 10 वर्षों में बंद हो गए ? विकास, विकास और सिर्फ विकास की माला जपने वाले हे विकास पुरूष, आंकड़े तो बताते है कि आपका गुजरात प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में आज पांचवे पायदान पर है। आपको मालूम ही होगा कि सन् 1995 में जब आपकी पार्टी पहली बार सत्तारूढ़ हुई तब गुजरात सरकार का कर्जा 10 हजार करोड़ रुपए से भी कम था, अब आपके निपुण और सार्मथ्यशाली नेतृत्व में वह 1 लाख 38 हजार 978 करोड़ तक पहुंच गया है तथा अनुमान है कि वर्ष 2015-16 के बजट तक यह 2 लाख करोड़ का जादुई आंकड़ा पार कर लेगा। 
अन्नदाता किसान की बातें आपने कई जगहों पर उठाई, एक कृषि प्रधान देश के संभावित पंत प्रधान को निश्चित रूप से किसानों की चर्चा और चिंता करनी चाहिये लेकिन यह भी बताना चाहिये कि कृषि वृद्धि में गुजरात आठवें स्थान पर क्यों है ? गुजरात में खाद (उर्वरक) पर 5 प्रतिशत वेट क्यों लगा रखा है जो कि इस देश में अधिकतम है। मार्च 2001 से अब तक जिन 4 लाख 44 हजार 885 किसानों के कृषि विद्युत कनेक्शन लम्बित है, उनके खेतों तक रोशनी कब पहुंचेगी ? या सिर्फ अदानी, अम्बानी, टाटाओं को ही मांगते ही बिजली कनेक्शन मिलते रहेंगे, और देश का भाग्य विधाता किसान दशकांे तक सिर्फ इंतजार करेगा, ‘जय जवान-जय किसान’ के अमर उद्घोषक लौहपुरूष के नाम पर देश भर से लौहा इकट्ठा कर रहे हे विकास पुरूष, गुजरात के इन लाखों किसानों को लौहे के चने चबाने पर क्यों मजबूर कर रखा है आपने ? 

विचित्र वेशभूषा धारण करके मंचों पर मुट्ठियां बंद करके किसी भारोत्तोलक की भांति भंगिमाए बनाकर अपने गलत इतिहास बोध का परिचय देने तथा गुजरात में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लम्बे चौड़े दावे करने वाले कलियुगी विकास के हे अंतिम अवतार, जरा यह भी तो बताते जाओ कि गुजरात के 26 जिलों के 225 ब्लाॅक अब भी डार्क जोन में क्यों है ? राज्य के पांच वर्ष से कम आयु के लगभग आधे बच्चे कुपोषण से क्यों पीडि़त है ? 70 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी और 40 प्रतिशत सामान्य से भी कम वजन के क्यों है ? क्या ये भी डाइटिंग कर रहे है ? एनीमिया से प्रभावित महिलाओं के मामले में गुजरात का स्थान 20वां है हालांकि आप इसका स्पष्टीकरण भी दे चुके है कि गुजराती महिलाएं अपने बदन को इकहरा या छरहरा रखने के लिये और स्लिम तथा फिट दिखने के लिये डाइटिंग करती है, वाकई भूख और कुपोषण का इससे सुन्दर और रोचक जस्टिफिकेशन आपके सिवा कौन दे सकता है।
गुजरात के आठ शहरों तथा तीन तालुकों में 2894 शिक्षकों के पद खाली क्यों है, वहीं चार जिलों के 178 स्कूल एकल शिक्षक के भरोसे क्यों चल रहे है ? आपको सार्वजनिक शिक्षा की तो वैसे भी चिन्ता नहीं होगी क्योंकि आप तो निजीकरण के घनघोर पक्षधर है, इसलिये शिक्षा जैसी बुनियादी सेवा को भी पब्लिक स्कूलों के प्रतिस्पर्धी बाजार के हवाले करने में आपको कोई झिझक नहीं है। 
आपके राज्य का स्वास्थ्य खर्च प्रतिवर्ष कम हो रहा है, आंकड़े बताते है कि राज्य स्तरीय बजट में स्वास्थ्य संबंधी मद में आवंटन के मामले में गुजरात का स्थान उपर से नहीं, नीचे दूसरा है, इसका मतलब यह नहीं है कि गुजरात में बीमार लोग नहीं है या उनके इलाज के लिए अस्पताल नहीं है, सब है पर प्राइवेट, मरीज लालची डाक्टरों के हवाले कर दिये गए है, जिसकी जेब में जितना दम, उसका उतना ही अच्छा इलाज हो सकता है, मतलब साफ है कि राज्य सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के फर्ज को अदा करने में नाकाम रही है, उसने स्वास्थ्य सेवाओं को बाजार के हवाले कर दिया है जबकि ग्रामीण शिशु मृत्यु दर में गुजरात का स्थान 14वां है तो एनीमिया से प्रभावित बच्चों के मामले में गुजरात 16वें पायदान पर है।
इतने विकसित आपके ‘गरवी गुजरात’ में भूख की बात करना तो शायद आपको अच्छा नहीं लगेगा पर वर्ष 2009 की वैश्विक भूख रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 17 बड़े राज्यों में से 23.3 के भूख सूचकांक के साथ गुजरात का स्थान 13वां  है, आपका विकसित गुजरात भी बिहार, झारखण्ड  जैसे खतरे की सूची वाले राज्यों में शामिल हो चुका है, मेहरबानी करके आप यह मत कहियेगा कि यह कोई ‘भूख वूख’ नहीं है, यह तो उपवास है। 
नर्मदा मैया का पानी गुजरात पहुंचा कर पीठ ठोंकते-ठोंकते आपकी पीठ में दर्द होने लगा हो तो जरा ठहरिये, राष्ट्रीय जनगणना-2011 के मुताबिक आपके राज्य की सिर्फ 29 फीसदी आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध है, जिन 6 करोड़ गुजरातियों पर आप गर्व करते रहे है उनमें से पौने दो करोड़ लोगों को शुद्ध पेयजल प्राप्त नहीं होता है। 
मोदी जी, एक तरफ जहां गुजरात में अमीरी बढ़ रही है, वैभव और सम्पन्नता अपनी पूरी नग्नता से दृष्टिगोचर हो रहा है, वहीं गरीबी भी निरन्तर बढ़ रही है। आज प्रत्येक 100 गुजरातियों में 40 व्यक्ति गरीब है, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आंकड़े कहते है कि गुजरात में गरीबी घटने का प्रतिशत निम्नतम है, मतलब कि गरीबी घट नहीं बढ़ रही है। 
शायद इस प्रकार की आंकड़ेबाजी से आप नाराज हो जायेंगे इसलिये थोड़ी सी सीधी-सीधी समझ आने लायक बातें करे कि गुजरात में हरेक तीन दिन में एक बलात्कार होता है। कुपोषण, एनीमिया से बच्चों की मौतें हो रही है, बिजली किसानों के लिये नहीं बल्कि उद्योग घरानों के लिये है, सरकारी स्कूलें खाली हो रही है, प्राइवेट पब्लिक स्कूलों में भीड़ बढ़ रही है, सरकारी अस्पतालों को पंगु बना दिया गया है ताकि निजी अस्पताल चांदी काट सके, छोटे कल-कारखाने तथा कुटीर घरेलू उद्योग निरन्तर दम तोड़ रहे है, भूखमरी बढ़ रही है और भ्रष्टाचार का तो आलम यह है कि अहमदाबाद की सड़कों पर खड़ा गुजरात ट्रेफिक पुलिस का जवान बाहर से आने वाली गाडि़यों से खुलेआम 20-20 रुपये तक वसूल लेता है, चारों तरफ लूट मची है, पैसों से लेकर संसाधनों तक की, देश-विदेश के लुटेरों ने अपने डेरे डाल दिये है वहां, गांधी का गुजरात अब हेडगेवार के चेलों के नेतृत्व में लुटने को अभिशप्त है। 
आप ‘गुड गर्वनेंस’ और सुराज्य की बड़ी-बड़ी बातें करते है लेकिन आपकी विधानसभा में विगत 10 वर्षों से डिप्टी स्पीकर का पद खाली है और तमाम आलोचनाओं के बाद भी पिछले 10 वर्ष से लोकायुक्त के पद पर नियुक्ति नहीं की गई। आपने वन अधिकार अधिनियम को लागू करने की कोई इच्छा शक्ति नहीं दिखाई है। सूचना के अधिकार के सिपाही वहां गोलियों से भूने गये और रोजगार गारण्टी योजना ठीक से लागू नहीं की जा रही है। बीपीएल के राशन कार्ड का मसला हो अथवा खाद्य सुरक्षा का मामला, हर तरफ फिसड्डी साबित हो रहा है गुजरात, मगर इतिहास साक्षी है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बंशी बजा रहा था। 
जला तो गुजरात भी था, गोधरा में रामसेवकों से भरी बोगी से लगाकर पूरे गुजरात के गांव व शहरों के अल्पसंख्यक चुन-चुन कर मारे गये, काटे गये, जिन्दा जला दिये गये, औरतों के साथ बलात्कार किए गए। गर्भवतियों के पेट फाड़कर भ्रूण निकालकर उन्हें हवा में उछाल कर काट डालने का नृशंस काम किया गया। इस नरसंहार के मामले में आपकी मंत्री मण्डलीय सहयोगी माया कोडनानी जेल में है। ईशरत जहां और सोहराबुद्दीन तथा तुलसीराम प्रजापत जैसे फर्जी एनकाउण्टरों में गुजरात के गृहमंत्री से लेकर डीजीपी तक सब सलाखों के पीछें पहुंचे है फिर भी आप गर्व से कहते है कि वर्ष 2002 के बाद गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है, शांति है! वाकई, मरघट की शांति है, उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद जिन 1958 दंगा केसों को दुबारा खोला गया, उनमें से मात्र 117 मामलों में ही गुजरात पुलिस ने गिरफ्तारियां की है यानि कि कुल मामलों के मात्र 5 प्रतिशत में कार्यवाही, यह कैसा न्याय और शांति और विकास है आपके राज्य में ? 
दलितों को नहर का पानी लेने-देने से लेकर सार्वजनिक स्थलों पर उनके साथ हो रहे भेदभाव की खबरें निरन्तर आ रही है, आप दक्षिण में दलितों की सभाओं को सम्बोधित कर रहे हो, दिल्ली में दलित नेता उदितराज को गले लगा रहे हो और मुजफ्फरनगर में पासवान से गले मिल रहे हो लेकिन आपके गुजरात में विगत दिनों 5 हजार दलितों ने हिन्दू धर्म छोड़कर धर्मान्तरण कर लिया, अपने ही राज्य के दलितों को गले से क्यों नहीं लगा पाये आप, सिर्फ सामाजिक समरसता पर किताबें लिख देने तथा बिकाऊ दलित लीडरों से मौसमी समझौते कर लेने मात्र से कोई दलितों का हितैषी नहीं हो जाता है, इतना याद रखो विकास पुरूष। 
और अंत में देश के नौजवानों को बताना चाहता हूं कि प्रिन्ट, इलेक्ट्राॅनिक और सोशल मीडिया के द्वारा छिडके गए इस ‘मोदी स्प्रे’ को ‘लहर’ मानकर ‘नमो-नमो’ का यशगान करते हुये यह मत भूलना कि गुजरात में भी बेरोजगारी के आंकड़े उतने ही भयावह है जितने बाकी राज्यों में है। गुजरात सरकार के स्वयं के रोजगार संबंधी आंकडे बताते है कि राज्य में 30 लाख बेरोजगार पंजीकृत है जिनमें 10 लाख पढे लिखे सुशिक्षित बेरोजगार युवा भी शामिल है। राष्ट्रीय नूमना सर्वेक्षण संगठन कहता है कि पिछले 12 वर्षों से गुजरात में रोजगार वृद्धि की दर लगभग शून्य है, ऐसी हालात के बावजूद आप देश के युवाओं को करोड़ो रोजगार के अवसर मुहैया कराने का दावा करते है तो यह सरासर धोखा है देश के नवजवानों के साथ।
जनवादी विचार आन्दोलन ने तो एक पर्चा छाप कर आपके विकास की कलई ही खोल दी है तथा कहा है कि गुजरात की इस असलियत को मीडिया कभी लोगों तक नहीं पहुंचायेगा, बिल्कुल सही बात है, इस बिकाऊ मीडिया ने देश को इस बात से अब तक अंजान रखा है कि कैग ने गुजरात राज्य में भूमि आवंटन तथा अन्य सरकारी कामों की हाल की समीक्षा रिपोर्ट में कहा है कि गुजरात में जो वित्तिय अनियमितताएं हुई है, वह कुल 16 हजार 706 करोड़ का घोटाला है। पर, अगर इतना सा भी घोटाला नहीं होगा तो बड़े-बड़े विज्ञापन, विशाल रैलियां और रात-दिन दौड़ते हेलीकाॅप्टर का खर्चा क्या अदानी, अम्बानी या टाटा देंगे ?
खैर, जनवादी विचार आन्दोलन द्वारा उपलब्ध कराये गए इन तथ्यों के आलोक में विकास पुरूष से यह सवाल पूछने का मन करता है कि - मोदी जी, शूं आ छे तमारू गरवी गुजरात ? (मोदी जी तो यह है आपका गरवी गुजरात ?)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता है।)

Monday, February 24, 2014

                           भाड़ में जाये ऐसे दलित नेता !

देश मे दलित बहुजन मिशन  के दो मजबूत स्तम्भ अचानक ढह गये, एक का मलबा भाजपा मुख्यालय में गिरा तो दूसरे का एनडीए में, मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, मिट्टी जैसे मिट्टी में जा कर मिल जाती है, ठीक वैसे ही सत्ता पिपासु कुर्सी लिप्सुओं से जा मिले। वैसे भी  इन दिनों भाजपा में दलित नेता थोक के भाव जा रहे है, राम नाम की लूट मची हुई है, उदित राज (रामराज), रामदास अठावले, रामविलास पासवान जैसे तथाकथित बड़े दलित नेता और फिर मुझ जैसे सैकड़ों छुटभैय्ये, सब लाइन लगाये खड़े है कि कब मौका मिले तो सत्ता की बहती गंगा में डूबकी लगा कर पवित्र हो लें।

एक तरफ पूंजीवादी ताकतों से धर्मान्ध ताकतें गठजोड़ कर रही है तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की शक्तियां साम्प्रदायिक ताकतों से मेलमिलाप में लगी हुई है, नीली क्रान्ति के पक्षधरों ने आजकल भगवा धारण कर लिया है, रात दिन मनुवाद को कोसने वाले ’जयभीम’ के उदघोषक अब ’जय सियाराम’ का जयघोष करेंगे। इसे सत्ता की भूख कहे  या समझौता अथवा राजनीतिक समझदारी या शरणागत हो जाना ?

आरपीआई के अठावले से तो यही उम्मीद थी, वैसे भी बाबा साहब के वंशजो ने बाबा की जितनी दुर्गत की, उतनी तो शायद उनके विरोधियों ने भी नहीं की होगी, सत्ता के लिये जीभ बाहर निकालकर लार टपकाने वाले दलित नेताओं ने महाराष्ट्र के मजबूत दलित आन्दोलन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और हर चुनाव में उसे बेच खाते है। अठावले जैसे बिकाऊ नेता कभी एनसीपी, कभी शिव सेना तो कभी बीजेपी के साथ चले जाते है, इन जैसे नेताओं के कमीनेपन की तो बात ही छोडि़ये, जब क्रान्तिकारी कवि नामदेव ढसाल जैसे दलित पैंथर ही भीम शक्ति को शिवशक्ति  में विलीन करने जा खपे तो अठावले फठावले को तो जाना ही है।

रही बात खुद को आधुनिक अम्बेडकर समझ बैठै उतर भारत के बिकाऊ दलित लीडरों की, तो वे भी कोई बहुत ज्यादा भरोसेमंद कभी नहीं रहे, लोककथाओं के महानायक का सा दर्जा प्राप्त कर चुके प्रचण्ड अम्बेडकरवादी बुद्ध प्रिय मौर्य पहले ही सत्ता  के लालच में गिर कर गेरूआ धारण करके अपनी ऐसी तेसी करा चुके है, फिर उनकी हालत ऐसी हुई कि धोबी के प्राणी से भी गये बीते हो गये, अब पासवान फिर से पींगे बढाने चले है एनडीए से। इन्हें रह रह कर आत्मज्ञान हो जाता है, सत्ता  की मछली है बिन सत्ता  रहा नहीं जाता, तड़फ रहे थे, अब इलहाम हो गया कि नरेन्द्र मोदी सत्तासीन हो जायेंगे, सो भड़वागिरी करने चले गये वहाँ, आखिर अपने नीलनैत्र पुत्ररतन चिराग पासवान का भविष्य जो बनाना है, पासवान जी, जिन बच्चों का  बाप आप जैसा जुगाड़ू नेता नहीं, उनके भविष्य का क्या होगा ? अरे दलित समाज ने तो आप को माई बाप मान रखा था, फिर सिर्फ अपने ही बच्चे की इतनी चिन्ता क्यों ?  बाकी दलित बच्चों की क्यों नहीं ? फिर जिस वजह से वर्ष 2002 में आप एनडीए का डूबता जहाज छोड़ भागे, उसकी वजह बने मोदी क्या अब पवित्र हो गये ? क्या हुआ गुजरात की कत्लो गारत का, जिसके बारे में आप जगह-जगह बात करते रहते थे। दंगो के दाग धुल गये या ये दाग भी अब अच्छे लगने लगे ? लानत है आपकी सत्ता  की लालसा को, इतिहास में दलित आन्दोलन के गद्दारों का जब भी जिक्र चले तो आप वहाँ रामविलास के नाते नहीं भोग विलास के नाते शोभायमान रहे, हमारी तो यही शुभेच्छा आपको।

एक थे रामराज, तेजतर्रार दलित अधिकारी, आईआरएस की सम्मानित नौकरी, बामसेफ की तर्ज पर एससी एसटी अधिकारी कर्मचारी वर्ग का कन्फैडरेशन बनाया, उसके चेयरमेन बने, आरक्षण को बचाने की लड़ाई के योद्धा बने, देश  के दलित बहुजन समाज ने इतना नवाजा कि नौकरी छोटी दिखाई पड़ने लगी, त्यागपत्रित हुये, इण्डियन जस्टिस पार्टी बनाई, रात दिन पानी पी पी कर मायावती को कोसने का काम करने लगे, हिन्दुओं के कथित अन्याय अत्याचार भेदभाव से तंग आकर बुद्धिस्ट हुये, रामराज नाम हिन्दू टाइप का लगा तो सिर मुण्डवा कर उदितराज हो गये। सदा आक्रोशी, चिर उदास जैसी छवि वाले उदितराज भी स्वयं को इस जमाने का अम्बेडकर मानने की गलतफहमी के शिकार  हो गये, ये भी थे तो जुगाड़ ही, पर बड़े त्यागी बने फिरते , इन्हें लगता था कि एक न एक दिन  सामाजिक क्रांति कर देंगे, राजनीतिक क्रान्ति ले आयेंगे, देश  दुनिया को बदल देंगे, मगर कर नहीं पाये, उम्र निरन्तर ढलने लगी, लगने लगा कि और तो कुछ बदलेगा नहीं खुद ही बदल लो, सो पार्टी बदल ली और आज वे भी भाजपा के हो लिये।

माननीय डाॅ. उदित राज के चेले-चपाटे सोशल  मीडिया पर उनके भाजपा की शरण में जाने के कदम को एक महान अवसर, राजनीतिक बुद्धिमता और उचित वक्त पर उठाया गया उचित कदम साबित करने की कोशिशो  में लगे हुये है। कोई कह रहा है - वो वाजपेयी ही थे जिन्होेंने संविधान में दलितों के हित में 81, 82, 83 वां संशोधन  किया था, तो कोई दावा कर रहा है कि अब राज साहब भाजपा के राज में प्रौन्नति में आरक्षण, निजी क्षैत्र में आरक्षण जैसे कई वरदान दलितों को दिलाने में सक्षम हो जायेंगे, कोई तो उनके इस कदम की आलोचना करने वालों से यह भी कह रहा है कि उदितराज की पहली पंसद तो बसपा थी, वे एक साल से अपनी पंसद का इजहार कुमारी मायावती तक पंहुचाने में लगे थे लेकिन उसने सुनी नहीं, बसपा ने महान अवसर खो दिया वर्ना ऐसा महान दलित नेता भाजपा जैसी पार्टी में भला क्यों जाता ?  एक ने तो यहाँ तक कहा कि आज भी मायावती से सतीश  मिश्रा वाली जगह दिलवा दो, नियुक्ति पत्र ला दो, कहीं नहीं जायेंगे उदित राज ! अरे भाई, सत्ता  की इतनी ही भूख है तो कहीं भी जाये, हमारी बला से भाड़ में जाये उदित राज! क्या फरक पड़ेगा अम्बेडकरी मिशन को ? बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार तथा अम्बेडकर का मिशन  तो एक विचार है, एक दर्शन  है, एक कारवां हैं, अविरल धारा है, लोग आयेंगे, जायेंगे, नेता लूटेंगे, टूंटेंगे, बिकेंगे, पद और प्रतिष्ठा के लिये अपने अपने जुगाड़ बिठायेंगे, परेशानी सिर्फ इतनी सी है कि रामराज से उदितराज बने इस भगौड़े दलित लीडर को क्या नाम दे , उदित राज या राम राज्य की ओर बढ़ता रामराज अथवा भाजपाई उदित राम ! एक प्रश्न   यह भी है कि बहन मायावती के धुरविरोधी रहे उदित राज और रामविलास पासवान सरीखे नेता भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन कर रहे हैं अगर चुनाव बाद गठबंधन में बहनजी भी इधर आ गई तो एक ही घाट पर पानी पियोगे प्यारों या फिर भाग छूटोगे ?

इतिहास गवाह है कि बाबा साहब की विचारधारा से विश्वासघात करने वाले मिशनद्रोही तथा कौम के गद्दारों को कभी भी दलित बहुजन मूल निवासी समुदाय ने माफ नहीं किया। दया पंवार हो या नामदेव ढसाल, संघप्रिय गौतम, बुद्धप्रिय मौर्य  अथवा अब रामदास अठावले, रामविलास पासवान तथा उदित राज जैसे नेता, इस चमचायुग में ये  चाहे कुर्सी के खातिर संघम् (आरएसएस) शरणम् हो जाये, हिन्दुत्व की विषमकारी और आक्रान्त राजनीति के तलुवे चाटे मगर दलित बहुजन समाज बिना निराश  हुये अपने आदर्श  बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों की रोशनी  में आगे बढ़ेगा, उसे अपने समाज के बिकाऊ नेताओं के ’भगवा’ धारण करने का कोई अफसोस नहीं होगा, अफसोस तो इन्हीं को करना है, रोना तो इन्ही नेताओं को है। हाँ, यह दलित समाज के साथ धोखा जरूर है, मगर काला दिन नहीं, दोस्तों वैसे भी मोदी की गोदी में जा बैठे गद्दार और भड़वे नेताओं के बूते कभी सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन सफलता नहीं प्राप्त करता, ये लोग अन्दर ही अन्दर हमारे मिशन  को खत्म कर रहे थे, अच्छा हुआ कि अब ये खुलकर हमारे वर्ग शत्रुओं के साथ जा मिलें। हमें सिर्फ ऐसे छद्म मनुवादियों से बचना है ताकि बाबा साहब का कारवां निरन्तर आगे बढ़ सके और बढ़ता ही रहे ..... !

-भँवर मेघवंशी
(लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नो  पर राजस्थान में सक्रिय है तथा स्वतंत्र पत्रकार है)

Monday, February 10, 2014

आज के कन्हैया को तो अहीरों ने मार डाला !







अपनी शूरवीरता  के लिये प्रसिद्ध चित्तौडगढ जिले के गंगरार थाना क्षैत्र के मण्डपिया गांव का 20 वर्षीय पप्पूलाल सालवी बचपन से ही अपने नाना कालूराम के साथ रह कर पला और बडा हुआ, घर में भजन सत्संग का वातावरण था, कबीर से लेकर निरंकारी तक निगुर्ण की अजस्त्र धारा बहती थी, पप्पू की वाणी का माधुर्य सबको मोह लेता था, सिर्फ 20 बरस उम्र लेकिन साधु संतों सा जीवन, सत्संगों में भजन और घर पर भी ज्ञान चर्चा , 2 वर्ष पूर्व उसने घर छोडकर अपने नाना के खेत में ही एक कुटिया बना ली , वही रहने लगा, एक वीतराग दरवेश  की भांति, अन्न आहार भी त्याग दिया, सिर्फ दूध और फल खाता , जवानी की दहलीज पर कदम रखता एक युवा संत , सुन्दर मनोहारी व्यक्तित्व  का धनी और कण्ठ में कोकिला सी आवाज, प्यार से लोग उसे पप्पू महाराज कहते और भजन गाने के लिये दूर-दूर तक सतसंगों में आमंत्रित करते , इस युवा संत के विभिन्न समाजों में कई  शिष्य-शिष्याएं  भी बन गये थे, लेकिन पप्पू महाराज शायद जगत को मिथ्या मानने वाले हवाइ विचारों से ही अवगत था , उसे जगत में जाति के कड़वे सच का ज्ञान नहीं था कि कोइ भी दलित चाहे वह संत बने या साधु , राजा बने या महाराज, चपरासी बने या कलेक्टर , व्यवसायी बने या विदूषक , मजदूर बने या कलाकार, उसकी औकात बढती नहीं है, चार बात किताबी ज्ञान की दोहरा देने और मीठी आवाज में भजन गा देने मात्र से जाति का कलंक कहां मिटता है, इस देश में ? भगवा धारण कर लेने से एक दलित को कौन संत मान लेता है इस मुल्क में ?

एक दलित जन्म से लेकर मरने तक सिर्फ और सिर्फ दलित ही रहता है, वह कितना भी प्रतिभावान क्यों ना हों, उसका कथित नीची जाति का होना , उसके लिये आजीवन अभिशाप होता है, क्योकि इस देश में जाति कभी भी पीछा नहीं छोडती है, जन्म से पहले और मरने के बाद तक जहां सारे कर्मकाण्ड जाति पर आधारित होते है, वहां पर दलित युवा संत पप्पू महाराज को कौन महाराज मानता ? आखिर था तो वह भी नीच जुलाहों का ही बच्चा ना ? जिसके पूर्वज कपडे बुन बुनकर बेचते थे, भले ही अब बुनकर , सूत्रकार, सालवी लिखने लगे हो लेकिन सवर्ण हिन्दुओं की नजर में तो वे नीच ही थे और नीच ही रहेगें , भले ही सरकार उन्हे कितना ही ऊंचा उठाये, समाज उन्हे कभी ऊंचा नहीं उठने देगा। तो इन पप्पू महाराज की खेत की पडौसन थी एक अहीर युवती, पप्पू महाराज अगर 20 के थे तो यह लडकी है 18-19 की, बचपन में शादी हो गइ थी , पति से खट-पट हुई  और रूठ कर पीहर आ बसी वापस, खेत पर काम से फुर्सत मिलती तो पप्पू महाराज की कुटिया में और भक्तों के साथ सुस्ताने चली आती थी , एक संत था तो दसरी सतायी  हुई , दोनों ही इस जगत से खफा, कब गुरू शिष्य बने , किसी को क्या मालूम ? कई  और चेले थे , वैसे ही वो भी थी , पर नारी का ह्रदय गुरू के प्रति भी प्रेम से सरोबार ही था , नजदीकियां इतनी कि गांव के बहुसंख्यक एवं प्रभावशाली  अहीरों को चुभने लगी, पहले तो चेतावनी दी गयी पर बात बनी नहीं , आखिर किसी नीच जाति के एक छोकरे की चेली बन जाये अहीरों की लडकी, कितनी शर्म की बात थी यह ?

         हालात ऐसे विकट हुए कि संत महाराज को गांव छोडना पडा , ननिहाल का घर छोड पप्पू महाराज प्रवास को निकल गये, तीन दिन बाद शिष्या भी घर से गायब हो गयी , महाराज के नाना कालुलाल सालवी के घर आ धमके अहीर लोग , बोले - तुम्हारा पप्पूलाल और हमारी लडकी दोनों कहीं चले गये है । हमारे टुकडों पर पलने वाले नीचों, तुम्हारी यह हिम्मत हो गइ कि तुम्हारे लौण्डे हमारी लडकियों को भगा ले जाये, हम उस हरामजादे को चारों तरफ ढूंढ रहे है , जैसे ही मिलेगा , उसके शरीर  के टुकडे -टुकडे कर देगें । अहीरन  के काका  डालू राम अहीर ने तो सरेआम धमकी दी कि-चाहे मुझे जेल ही हो जाये , पर तुम्हारा तो बीज तक नष्ट कर दूगां। घबरा गये महाराज के मण्डपिया के दलित सालवी, उन्होनें हाथ पांव जोडे और कहां कि अगर हमारे लडके ने गलती की है तो हम सजा देगें उसे, ढूंढेगें, वापस लायेगें, पर अहीर तो मरने-मारने पर आमादा थे , वे पप्पू के नाना कालूलाल से पप्पू का फोटो तथा मोबाइल नं. 8094836138 लिखवाकर ले गये। इस बीच गांव में शांति रही , ना तो अहीरों ने पप्पू महाराज की कोइ जानकारी ली और ना ही कोई  पूछताछ की, नारायण अहीर जो कि गांव का ही निवासी है, उसने जरूर पप्पू के ननिहाल के घर आकर कहा कि तुम्हारा बच्चा 6 महीने तक नहीं आयेगा

          कालूलाल को पप्पू का आखरी संदेश  भी यही मिला कि वह कहीं बाहर है और आइसक्रीम की लारियों पर काम करेगा, फिर लौट आयेगा, लेकिन गांव से गायब हुई  अहीर लडकी के बारे मे उसने कुछ भी नहीं बताया , अब महाराज की कुटिया खाली थी , ना गुरू था और ना ही चेली , अन्य शिष्य भी आते ना थे , सब कुछ पूर्ववत सामान्य हालातों में चल रहा था कि 11 जनवरी 2014 की रात करीब 12 बजे मण्डपिया के ही निवासी उदयलाल सालवी ने पप्पू के नाना कालूलाल के घर आकर जानकारी दी की उसे अभी खबर मिली है कि मेडीखेड़ा फाटक के पास एक लाश  मिली है जिसे पुलिसवाले पप्पू की बता रहे है । यह सुनकर पप्पू के परिवार में तो कोहराम मच गया , पप्पू के नाना कालूलाल की हालत पागलों जैसी हो गयी  , गांव से पप्पू का मामा हीरालाल, नंदलाल, किशन  तथा पप्पू के पैतृक गांव आकोडिया से उसके पिता लादूलाल, मोहनलाल तथा भंवरलाल सालवी आदि घटना स्थल पर पहुंचे, उन्होनें मौके पर देखा कि पप्पू की लाश  के टुकडे हो गये है, उसका वह हाथ गायब था जिस पर उसका नाम गुदा हुआ था , एक पैर कटा हुआ था , उसके गुप्तांग बेरहमी से काट डाले गये थे, शरीर  पर जगह - जगह चोटों के निशान थे, प्रथम दृष्टया ही मामला हत्या का प्रतीत हो रहा था , लेकिन वहां मौजूद चंदेरियां थाने की पुलिस ने बताया कि इसने ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली है, घटना स्थल पर अहीरों की उक्त लडकी और पप्पू के फोटों तथा प्रेम पत्रनुमा सुसाइड नोट भी मिला है , पप्पू के परिजनों से पुलिस द्वारा खाली कागजों पर दस्तखत करवाने गये , पप्पू का शव लेकर उसके परिजन पैतक गांव आकोडिया पहुचें ,जहां पर उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया ।

मृतक के मामा हीरालाल सालवी द्वारा एक अर्जी पुलिस अधीक्षक को देकर पप्पू की हत्या की आशंका जताते हुए जांच की मांग की गइ लेकिन इस प्रार्थना पत्र को पुलिस द्वारा सुना ही नहीं गया, क्योकि अहीर लडकी का मामा पुलिस में मुलाजिम है , बताया जाता है कि वह कोई  कार्यवाही नहीं होने दे रहा है , जब मामला ही दर्ज नहीं हुआ तो प्रार्थी हीरालाल ने न्यायालय की शरण ली , इस्तगासे के जरिये अब जाकर मामला दर्ज किया गया है, लेकिन इज्जत के नाम पर , जाति के नाम पर प्रेम करने वालों की हत्या कर देना भारतीय समाज में मर्दानगी का काम माना जाता है, खास तौर पर अगर लडका दलित हो और लडकी सवर्ण हो तो उनका प्रेम नाकाबिले बर्दाश्त बात है। आखिर कोई  दलित लड़का किसी सवर्ण लडकी को शिष्या बनाये या प्यार करे, यह दुनिया के सबसे सहिष्णु सवर्ण हिन्दू समाज को कैसे सहन हो सकता है ? वैलेन्टाइन डे का बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे इस देश  के लोगों से मुझे सिर्फ इतना सा कहना है कि प्रेम के देवता कृष्ण जो कि खुद एक अहीर थे, उसी के वंशज होने का दम भरने वाले अहीरों ने आज के इस कन्हैया को अपने ही हाथों से पूरी बेरहमी से मार डाला है, और अब कोई  कार्यवाही नहीं होने दे रहे है। अब सिर्फ सवाल ही सवाल है, जिनका कोई  जवाब नहीं है सब तरफ अजीब सी खामोशी  है, एक सर्द सा सन्नाटा है और मरघट की डरावनी शांति फैल रही है , क्योकि हर युग में प्रेम करने की सजा सिर्फ मौत होती है, चाहे वह कबीलाई  तालिबान के हाथों हो या जाति, गौत्र की खांप पंचायतों के द्वारा , प्रेमियों को तो मरना ही है ताकि प्रेम जिन्दा रह सके ।


- भंवर मेघवंशी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

Saturday, February 8, 2014

वसुंधरा जी,राजस्थान मे आपका राज है या पोपा बाई का ?

25 जनवरी की सुबह सुबह भीलवाडा जिले के कोटडी कस्बे के सोपुरा जाटों के गाँव की दलित महिला लाली बलाई अपने घर पर चूल्हा जलाने की तैयारी  कर रही थी कि  अचानक गाँव की ही दबंग जाट समाज की महिला मनभर उसके यहाँ आ धमकी,मनभर जाट के हाथ मे बच्चों के मलमूत्र से भरी एक थैली थी ,उसने आते ही गंदगी की यह थैली दलित महिला लाली के घर के दरवाजे पर उंड़ेल दी ओर चिल्लाने लगी कि  तू ढेड, बलाईटी, सुगली औरत है ओर डाकन है , तेरी वजह से मेरे पशु बीमार रहते है,तू मेरी भेंस को खा गयी है,.जब दलित महिला लाली ने अपने घर के दरवाजे पर गंदगी डालने का विरोध किया तो मनभर जाट बोली कि तुम दलित तो हो ही गंदे, तुम्हारे पूर्वज हमारी गंदगी साफ करते थे ओर तुम्हारा भी यही काम  है ,तुम्हे भी यही करना होगा . लाली  बलाई ने मनभर जाट के इस प्रकार के अपमान जनक आरोपों का प्रतिरोध किया तथा उसे ज़बान संभाल कर बात करने की नसीहत दी ,इससे मनभर और  भड़क गयी,उसने अपने पिता सुआ लाल,मा प्रेम ओर बहन गमांन  को भी बुला लिया ओर दलितों को जमकर गाली गलोज करना प्रारंभ कर दिया .इतना ही नही बल्कि उसने लाली बलाई को इंगित करके सरेआम कहा की तू डाकन है ,तेरी वजह से ही मेरी भेंसे मरती है,हमारी गंदगी तुम्हारे घर मे डालने से ही हमारे पशुओं की बीमारी ठीक होगी .दलित लाली ने जब इस बात का विरोध किया तो उक्त  तीनों जाट महिलाओं ने उसकी चोटी  पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया ओर उसके कपड़े फाड़ने लगी, इस जाट परिवार का कहना था कि  लाली बलाई मे डायन है ,उसे नंगा करके गाँव मे घुमाना पड़ेगा तभी उसके शरीर से डाकन निकलेगी, गाँव के इस जाट परिवार  का यह भी कहना था  कि  लाली जैसी डायन  औरतों का इस प्रकार से इलाज करने से ही गाँव के अन्य दलित औकात मे रहेंगे ,नही तो उनको गाँव छुड़वा दिया जाएगा, गौरतलब है कि  इसी सोपुरा जाटों के गाँव का रायमल बलाई कुछ माह पहले ही इस गाँव को इसी प्रकार के अत्याचारों से तंग आकर छोड कर  गया था, अब ये लोग लाली के परिवार को भी  गाँव से भगाना चाहते थे, करीब आधे घंटे तक लाली के साथ अभद्रता, खींचतान, मारपीट चली, किसी भी दलित की हिम्मत नही थी की वो लाली को इन आततायी औरतो  के चंगुल से छुड़वा सके, जो भी लाली को बचाने आता ,उसी को जान के लाले पड जाते ,सो कोई भी नही आया बीच बचाव करने, अंतत:  जब सोपुरा जाटों के इन कतिपय अत्याचारियो  ने अपनी  मनमानी पूरी  कर ली तब वो  लाली  को यह धमकी दे कर छोड़ गये कि  यदि तुमने हमारी कहीं भी शिकायत की तो हम तुझे ओर तेरे परिवार को जिन्दा जला देंगे, इतना कह कर वो चले गये और  लाली पर पूरी नज़र रखते  रहे कि  कहीं वोर् कायवाही करवाने तो नही जा रही है, घटना के 5 दिन बाद किसी तरह चोरी छुपे लाली बलाई रात को साढ़े 8 बजे कोटडी  थाने पंहुची ओर मामले की लिखित जानकारी पुलीस को दी .दलित महिला लाली ने पुलीस से प्रार्थना  की कि  मै ,मेरा पति ओर मेरा बच्चा बहुत  डरे हुए है, हमें सुरक्षा दी जाए,हमारी जान ख़तरे मे है ,गाँव के दबंग लोग या तो हमें गाँव से भगा  देंगे या जान से मार डालेंगे .पर पुलीस ओर प्रशासन की संवेदनशीलता देखिए कि  घटना के 15दिन बीत  जाने के बाद भी आज तक पुलीस ने ना तो रिर्पोट  दर्ज  की  और  ना ही लाली बलाई के परिवार को कोई सुरक्षा दी गयी है, पुलीस दलित पीडिता की रिपोर्ट  के आधार पर सिर्फ  इतना कर रही है कि लाली  बलाई ओर मनभर जाट के परिवार  को आमने सामने बिठा कर समझौता  करवाने मे लगी हुई है, निरीह दलितों की कोई नही सुनता है,ना तो कोटडी थाना सुनता है ओर ना ही सकल हिंदू समाज,सोपुरा के दलितो की आवाज़ ना तो प्रदेश भाजपा मुख्यालय पंहुचती है ओर ना ही नागपुर के संघ कार्यालय  तक ,जिला मुख्यालय  तक भी पंहुच जाए तो गनीमत ही  है ,बलाई  समाज के ठेकेदार भी आजकल मौन है,राजस्थान की राज्यपाल महिला है ओर मुख्यमंत्री भी, लेकिन कोटडी की दलित महिला लाली बलाई  की कोई सुनवाई करने को तैयार  नही है,ऐसे हालात में  सूबे की वजीरे आला से यह सवाल पूंछने  का मन  करता है कि  वसुंधरा जी, राजस्थान मे आपका राज है या पोपा बाई का ?

-भंवर मेघवंशी 
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

Sunday, January 5, 2014

अल्केमिस्ट: पूरब की ओर – भंवर मेघवंशी

लेखक: भंवर मेघवंशी
विश्वप्रसिद्ध लेखक पाउलो कोल्हो की कालजयी कृति ‘अल्केमिस्ट’ के आगे की कहानी . . .
फातिमा की याद के अहसास ने लड़के को भौतिक खजानो के प्रति एक अजीब सी विरक्ति से भर दिया, उसे एक ही क्षण में तिजोरी के भीतर रखे बेशकीमती हीरे, माणक, पन्ने जैसे जवाहरात तथा सोने की मोहरें और उरीम-थुरीम नामक पारस पत्थर भी पराये लगने लगे, उसे लगा कि उसे तो आत्मा का खजाना ढूंढना था, उसे तो अपनी प्रेमिका फातिमा के घने काले कुन्तलों की छांव और बांहों का सहारा पाना था, वह तो प्यार के पिरामिडों में फातिमा की हंसी और चुम्बनों का खजाना चाहता था, क्या वह इन सोने चांदी और रत्नजडि़त आभूषणों को पाकर खुश हो जायेगा ? उसी पल लड़के की आत्मा को सांसारिक माया की निस्सारता ने ढांप लिया, अब उसके एक तरफ एक भौतिक खजाना था जिसे उसने पूरा रेगिस्तान पार करके ढूंढा था, जिसके लिये उसे अपनी प्रिय भेड़ें बेचनी पड़ी थी और जिसके बाद वह गड़रिया से मुसाफिर बन गया था, दूसरी तरफ रेगिस्तान में अनायास मिला एक ऐसा खजाना था, जो उसकी रूह में बस गया था, वह था फातिमा की आत्मा से एकाकार होने की अदम्य चाहत का खजाना . . .।
वह अपनी आत्मा का खजाना पाने को आतुर था, लड़के ने रेगिस्तान के उस इकलौते मठ में गूलर के पेड़ के नजदीक दुनिया के भौतिक खजाने के पास खड़े होकर पूरी ताकत से पुकारा -
‘‘फातिमा . . . . .’’
मगर कोई प्रत्युत्तर नहीं था, फातिमा की तरफ जाती हुई हवाओं से लड़के ने विनती की कि जिस तरह उन्होंने उसे हवा में बदलने में मदद की थी, उसी तरह ऐ हवाओं, मेरा पैगाम मेरी फातिमा तक पहुंचा देना और कहना कि उसकी रूह का मालिक अपनी रूह के मालिक से मिलने निकल पड़ा है। लड़के ने फिर से पुकारा, या यों कह लीजिये कि विश्वात्मा को हाजिर नाजिरमान कर उसने दोहराया – ‘‘फातिमा, मैं आ रहा हूं . . .।’’
लेखक की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘‘अल्केमिस्ट: पूरब की ओर’’ का प्रारम्भिक अंश